एनटीपीसी के मजदूरों के श्रम का नहीं दिया सरकार ने सम्मान

  •  सीआईएसएफ नहीं दे रही मजदूरों के इंट्री का आकडा

रायबरेली।(संदीप मौर्या ) वेतन मिलने की पहली तारीख हर काम वालों के लिये के लिए बहुत सुभ दिया होता है। इस तारीख के आने का इंतजार हर कर्मचारी लोगों को बड़ी उत्सुकता से होता है. उनकी महीने भर की जी-तोड़ मेहनत का वेतन मिलने वाला होता है. कुछ ऐसी ही उत्सुकता एनटीपीसी में काम करने वाले उन सैकड़ों मजदूरों को भी थी. घड़ी की सुइयां यही में 5 बजने में 15 मिनट का समयबाकी था. मतलब की अब कुछ ही घंटे बाद उनको उनकी महीने भर की मेहनत का फल मिलने ही वाला था. लेकिन नियति को तो कुछ और ही मंजूर था. एक तेज धमाका होता है और छड़ भर में सब कुछ बदल जाता है. एनटीपीसी के बाॅयलर की पाइप से लावा बहने लगता है और वहा काम कर रहे लोगों के चीथड़े उड़ जाते. हर तरफ खाली त्राहि माम. इससे पहले कि वे कुछ समझ पाते कि क्या हुआ लोग पल भर में ही भस्म हो गए. वो धमाका मजदूरों की न केवल जान लेता है बल्कि उनके परिवार वालों की उम्मीदों को भी दफन कर देता है. उन के बच्चे कई दिनों से उस दिन के इंतजार में थे कि पापा उनके लिए सामान लेकर आएंगे।

उनकी पत्नियाँ उस लम्हे में डूब जाने को तैयार थी जब वो उनके लिए नई साड़ी दिलाने का वादा पूरा करेंगे. लेकिन एक झटके में ये सब खत्म हो गया. उन बेकसूर मजदूरों की गलती आखिर क्या थी? वो सब सिर पर हेलमेट पहने थे हाथों में दस्ताने लगाएं थे. आखिर इस दुनिया में मरना कौन चाहता? इस घटना की अब तक प्राप्त जानकारी के अनुसार युनिट में कुल 500 से अधिक मजदूर काम कर रहे थे. इनमे से ज्यादतर लोग जो हादसे का शिकार हुए वो मजदूर थे. इन्हें रायबरेली, इलाहाबाद और लखनऊ के विभिन्न सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए भर्ती कराया गया है. इनमें उप्र उडीसा, मध्य प्रदेष के कई षहर के लोगों को काम मिला था। सिविल अस्पताल में 30 मरीज भर्ती किये गये थे, जिनमे छह की अब तक मृत्यु हो चुकी है. रायबरेली सरकारी अस्पताल में भर्ती 18 मजदूरों की मौत हो चुकी है. सरकारी अस्पतालों का हाल तो आप जानते ही है. आशा के अनुरूप वहा उनका समुचित इलाज नहीं हो पा रहा है. कई अभागे घायलों के साथ उनके परिवार का कोई सदस्य भी नहीं है. कुछ मजदूरों के परिजनों ने प्रशासन पर इलाज में भेदभाव का आरोप लगाया है. आरोप तो ये भी है कि हादसे में हताहत हुए अफसरों को जहां इलाज के लिए दिल्ली के मशहूर अस्पतालों में एयर एंबुलेंस से भेजा गया है, वहीं जिंदगी मौत से जूझ रहे मजदूरों को सरकारी अस्पतालों में भर्ती करा दिया गया है.

घायलों की दशा देखकर अस्पताल में मौजूद लोग भी रो उठे. घटना स्थल पर मौजूदा शव की हालत ऐसी थी . जैसे खूंटी पर किसी ने पुतले को टांग दिया हो. इन सब भयावह मंजर के बीच ये सवाल उठाना लाजमी है कि मृत्यु की शैया पर लेटे उन लोगों की गलती आखिर क्या थी? सुरक्षा के ही उपकरण चिंदी चिंदी हो गए. उधर  हमेशा की तरह राजनैतिक दल घटना होने के बाद गिद्धों की तरह लाशों के सायें में आरोप- प्रत्यारोप का खेल  खेलने लगी है. उनके घड़ियाली आंसू देखते ही बन रहे है. मुआवजों की छिटपुट वर्षा भी शुरू हो चुकी है. क्या  मुआवजों का रकम उन विधवाओं को उनके पति का प्यार वापस लौटा पाएगा? क्या वो राशि उन बेसहारा बच्चों को उनके बाप का साया जो जीवन के पहले ही चरण में छीन गया वापस दिला पाएगा? आखिर हमारी सरकार तंत्र समय रहते क्यों नहीं चेतता? इतने खतरनाक जगहों पर काम कर रहे उन मजदूरों के जान की कोई कीमत है भी या नहीं ये सब कुछ ऐसे सवाल है जिसका उत्तर जटिलता की गहराइयों में खो गया है.

अगर हमें लगता है कि मजदूर केवल मरने के लिए नहीं बने है उन्हें भी अधिकार है अपने सपनों को जीने का तो उसके लिए हम सबकों भी आगे आना होगा. कुछ गैर सरकारी संगठन इस दिशा में काम भी कर रहे है. जैसे झारखण्ड के कुछ संगठन मजदूरों को उनके अधिकारों को लेकर जागरूक करने में जुटे हुए है. मजदूरों को उनके स्वास्थय और सुरक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में प्रस्तुत करने का अभियान भी छेड़ रखे है. आज भले हम आद्योगीकरण का चोला ओढ़ लिए हो लेकिन उसकी धुरी आज भी वो मजदूर ही है जिनके श्रम की प्रतिष्ठता को वो सम्मान नहीं मिल पा रहा. हम उम्मीद करते है कि एक मई को फीता काट के उद्घाटन करने वाले मंत्री और आभासी दुनिया में पोस्ट डाल के मजदूर दिवस की शुभकामना देने वाले युवा उससे बाहर निकल कर जमीन पर उन मजदूरों के लिए वास्तविकता में कुछ करेंगे।