दादासाहब फाल्के मतलब भारतीय सिनेमा का आदिपुरुष. ये नाम सुनते ही बरबस याद आती है एक अच्छी कद-काठी का उम्रदराज आदमी (भले ही वो उपलब्ध तस्वीरों में ऐसे दिखते नहीं). ये नाम सुनते ही लगने लगता है कि आजकल के एक्टर ज्यों बालक हों और ये उनका दादा रहा होगा.
हम ज्यादातर दादासाहब के बारे में इतना ही जानते हैं कि उन्होंने भारतीय सिनेमा की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई थी और बॉलीवुड का सबसे बड़ा अवॉर्ड उनके नाम से दिया जाता है.
माना जाता है कि दादासाहब फाल्के अवॉर्ड जिसे मिल गया, अब वो बैठे और मौत का इंतजार करे. वो सब कर चुका है, इंडस्ट्री में उसके करने को कुछ रह नहीं गया है. क्यों दादा साहब फाल्के का नाम इतनी महत्व रखता है, इसका भेद खोलने से पहले दादासाहब के व्यक्तित्व और कृतित्व की परिक्रमा अवश्य की जानी चाहिए.
दादासाहब का असली नाम धुंढीराज गोविंद फाल्के था. नासिक महाराष्ट्र में जन्मे धुंढीराज के पिता संस्कृत के प्रोफेसर थे. धुंढीराज ने बड़े होकर मुंबई के मशहूर जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स में एडमिशन लिया. बाद में उन्होंने कला भवन, महाराज सयाजीराव गायकवाड यूनिवर्सिटी में भी पढ़ाई की. फोटोग्राफी की. राजा रवि वर्मा के साथ काम किया पर सबसे यादगार काम ये किया कि भारतीय सिनेमा को पहली फिल्म दी.
पहली फिल्म के बनने की कहानी उत्साह से भरी हुई है. फाल्के पहले एक पेंटर और फोटोग्राफर हुआ करते थे. और इससे पहले उनकी जादू में भी रुचि थी. पर जो फिल्ममेकिंग का जुनून फाल्के को लगा था उसके सामने फाल्के बाकी सब भूल गए थे. शायद फाल्के जानते थे कि फिल्म बनाकर वो अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा जादू दिखाने जा रहे हैं.
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