जाति की जकड़बंदी

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कानून-व्यवस्था प्रमुख मुद्दा था, जिसके कठघरे में समाजवादी पार्टी की तत्कालीन सरकार खड़ी थी। योगी आदित्यनाथ की सरकार बनी तो लोगों ने इस मोर्चे पर सुधार की उम्मीद की थी। लेकिन हाल की कुछ घटनाएं यह बताती हैं कि कानून-व्यवस्था दुरुस्त करने के प्रति घोर लापरवाही बरती गई है। नतीजतन, बेहद मामूली बातों के बहाने भी समाज के अलग-अलग तबकों के बीच बेलगाम हिंसा की घटनाएं सामने आ रही हैं। यह हैरानी की बात है कि सहारनपुर में पांच मई को हुए पहले हंगामे के बीस दिन बाद भी सरकार को कोई ऐसी पहल करना जरूरी नहीं लगा जिससे स्थिति में सुधार हो। इसी लापरवाही का नतीजा इस रूप में सामने आया कि मंगलवार को हिंसा से प्रभावित शब्बीरपुर के दौरे पर गर्इं बसपा प्रमुख मायावती की रैली से लौटते दलित समुदाय के लोगों पर ऊंची कही जाने वाली जाति के लोगों ने एक बार फिर घातक हथियारों से हमला कर दिया। इसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई और सात लोग घायल हो गए।

हो सकता है कि इसे एक बार फिर तात्कालिक महत्त्व की घटना बता कर इसके असर को कम आंकने की कोशिश की जाए। लेकिन सच यह है कि हाल के दिनों में वहां जाति के आधार पर चल रही हिंसा से जिस तरह के हालात पैदा हुए हैं, अगर उन्हें तुरंत संभालने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए गए तो उसका दीर्घकालिक नुकसान समूचे समाज को उठाना पड़ सकता है। गौरतलब है कि पांच मई को महाराणा प्रताप जयंती के सिलसिले में निकाले गए एक जुलूस के दौरान शब्बीरपुर गांव में दो पक्षों के बीच हिंसा हुई। उसके बाद तलवार और दूसरे हथियारों से लैस ठाकुर समुदाय की ओर से दलित बस्ती पर हुए हमले में दलित समुदाय के कई लोग बुरी तरह घायल हुए, पचास से ज्यादा घरों को जला दिया गया था। तब भी पुलिस और प्रशासन ने हालात को संभालने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया। उसके कुछ दिनों बाद वहां दलितों की ओर से भीम आर्मी नामक संगठन का प्रदर्शन हुआ। यानी एक जुलूस से उपजे विवाद के बाद एक ही समाज के दो वर्ग आमने-सामने खड़े हैं और उनके बीच सामाजिक टकराव तीखा होता जा रहा है।

सवाल है कि क्या सरकार को जाति के नाम पर चल रहे इस संघर्ष के खतरनाक नतीजों के बारे में अंदाजा नहीं है? आखिर वे कौन-सी वजहें हैं कि समय के साथ जाति की दीवारें जहां कमजोर करने या तोड़ने की कोशिश होनी चाहिए थी, मामूली बातों पर उसे हवा दी जाती है और हालात को इस हद तक बिगड़ने दिया जाता है! इसके बाद समाज में जिस तरह अराजकता फैलती है, क्या उसमें किसी का जातिगत अहं बच पाता है? आखिर क्या वजह है कि समाज में सदियों से वंचना के शिकार तबकों के सम्मान और अधिकार के सवाल आज भी टकराव की वजह बन जाते हैं। जाति के मानस से उपजे दुराग्रहों को दूर करने के लिए समाज के स्तर पर शायद ही कोई पहल दिखती है। लेकिन क्या यह सरकार की जिम्मेदारी नहीं है कि वह जाति या धर्म के नाम पर होने वाले किसी भी तरह के टकराव की स्थितियां न सिर्फ पैदा न होने दे, बल्कि ऐसे कार्यक्रमों पर लगातार जोर दिया जाए, जिनसे समाज के अलग-अलग वर्गों के बीच जाति की जड़ता टूटे, सद्भाव का माहौल बने!

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