इन दिनों हमारे देश में तीन तलाक़ के ख़िलाफ़ मुसलमान औरतों की मुहिम ज़ोरों से चल रही है. कई औरतें तीन तलाक़ पर रोक की मांग लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंची हैं.
अलग अलग शहरों एवं कस्बों से किस्से आ रहै हैं जहाँ मुसलमान औरतें खड़ी होकर तीन तलाक़ या एक तरफ़ा जुबानी तलाक़ से मुकाबला कर रहीं हैं. नक़ाब या बुर्क़े में छुपे कई चेहरे आज मीडिया में आ रहै हैं जो सब अपनी अपनी आपबीती सुना रहै हैं और इंसाफ़ की मांग कर रहै हैं.
स्वतंत्र भारत में हम एक तारीखी मक़ाम पर हैं जहाँ देश के सबसे वंचित और सबसे पिछड़े समूहों में से एक समूह – यानि की मुसलमान औरतें आज अपने अधिकार और इंसाफ़ के लिए लड़ रही हैं.
वे कुरान में लिखे अपने अधिकार और साथ ही साथ संवैधानिक अधिकार भी मांग रही हैं. वे सवाल पूछ रही हैं कि जब पवित्र कुरान में तीन तलाक़ नहीं है तो फिर हम तीन तलाक़ क्यों सहें? वे सर्वोच्च न्यायलय एवं सरकार से कानून एवं सुरक्षा की अपेक्षा कर रही हैं.
यहाँ संक्षिप्त में कहना जरुरी है की पवित्र कुरान के मुताबिक अल्लाह ने औरत और मर्द में भेदभाव नहीं किया है. मुसलमानों के लिए शादी एक सामाजिक क़रार है जहाँ दोनों पक्ष के बराबर हक़ एवं ज़िम्मेदारियां हैं.
तलाक़ को एक निंदनीय एवं बुरी चीज कहा गया है. साथ है साथ कई आयातों में तलाक़ का स्पष्ट तरीका भी दर्शाया गया है. यहाँ पति-पत्नी में परस्पर बातचीत, संवाद एवं परिवार वालों की मध्यस्थता की बात कही गयी है.
ये भी कहा गया है कि सुलह की कोशिश कम से कम 90 दिनों तक होनी चाहिए और अगर ये विफल रहे तो फिर न्यायपूर्ण तरीके से तलाक़ हो सकता है. ज़ाहिर है कि एक-तरफ़ा जुबानी तलाक़ या तीन तलाक़ पूरी तरह से गैर इस्लामी है.
इसी लिए भारत में शिया समाज में एवं अनेक मुस्लिम देश में तीन तलाक़ क़ानूनी नहीं माना जाता. इतना ही नहीं जेंडर जस्टिस इस्लाम का एक बुनियादी असूल है और ज़ाहिर है की तीन तलाक़ की इजाजत हरगिज़ नहीं है.
इसके बावजूद पितृसत्ता और रुढ़िवादी मानसिकता के चलते हमारे समाज में तीन तलाक़ होता आया है. पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे पुरुषवादी इदारे इसे सही ठहराते आए हैं. जबकि मज़हब एवं मानवता दोनों ही की रौशनी में ये सही नहीं है. इस सिलसिले में प्रधान मंत्री की राय महत्वपूर्ण है.
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