मोदी सरकार के तीन साल: दस सालों में सबसे कम रोज़गार

 

विनोद कुमार यादव की उम्र 35 साल है और वो बेरोज़गार हैं. विनोद लेक्चरर बनना चाहते थे, इसलिए उन्होंने पीएचडी भी कर ली. मगर उनके पास कोई नौकरी नहीं है.

पीएचडी के बाद उन्हें किसी कॉलेज में दो या तीन महीनों तक बतौर गेस्ट लेक्चरर पढ़ाने का मौक़ा मिला.

इसके बावजूद उन्हें पक्की नौकरी कहीं नहीं मिली.

वो नौकरी के लिए अपनाई गई चयन की प्रक्रिया को ही दोषी मानते हैं जिसकी वजह से कॉलेजों में रिक्तियां भरी ही नहीं जा रही हैं.

कई सालों से विश्वविद्यालयों में ‘लेक्चरर’ के पद खाली पड़े हैं, जिन पर बहाली नहीं की जा रही.

विनोद कहते हैं कि उन्होंने 31 साल की उम्र में ही अपनी पीएचडी पूरी कर ली थी और तब से वो एक पक्की नौकरी के लिए चक्कर काटते-काटते थक गए हैं.

विनोद कुमार यादव ने थक हारकर उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षा दी है, जो वो तब दे सकते थे जब उन्होंने अपना ‘ग्रेजुएशन’ किया था. यानी 22 साल की उम्र में.

यह कहानी सिर्फ विनोद की नहीं है, बल्कि हर साल डिग्रियां लेकर नौकरी के बाज़ार में आने वाले सवा करोड़ युवक-युवतियों की भी है, क्योंकि पिछले सात सालों में भारत में नौकरियां कम होती चली गई हैं. इस साल नई नौकरियों का औसत सबसे कम है.

स्थान- आगरा, तारीख़- 24 नवंबर, 2013 और मौक़ा- भारतीय जनता पार्टी की जनसभा

इस जनसभा में प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने मंच से घोषणा की थी कि अगर उनकी सरकार जीतकर आती है तो हर साल एक करोड़ नौकरियों का सृजन होगा.

5 मार्च, 2017– भारतीय जनता पार्टी ने अपने आधिकारिक ‘ट्विटर हैंडल’ से ट्वीट कर दावा किया कि देश में बेरोज़गारी घटी है.

स्टेट बैंक के ‘इको फ़्लैश’ के सर्वेक्षण का हवाला देते हुए कहा गया है कि अगस्त 2016 में बेरोज़गारी की दर 9.5 प्रतिशत थी, जो फरवरी 2017 में घटकर 4.8 प्रतिशत हो गई है.

लेकिन भारत सरकार के ही श्रम मंत्रालय के ‘लेबर ब्यूरो’ के आंकड़ों के हिसाब से नए रोज़गार पैदा होने में 84 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है.

आंकड़े बताते हैं कि जहां 2009-2010 में 8 लाख 70 हज़ार नए लोगों को रोज़गार मिला था, वहीं 2016 में सिर्फ़ 1 लाख 35 हज़ार नए रोज़गार पैदा हुए.

यानी 2010 में जितनी नई नौकरियां मिल रही थीं, आज उसका सातवां हिस्सा ही उपलब्ध है.

भारत में 60 प्रतिशत आबादी नौजवानों की है, जो किसी भी देश के नौजवानों की आबादी से कहीं ज़्यादा है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमेशा कहते रहे हैं कि ये युवा आबादी भारत की सबसे बड़ी शक्ति है.

इसी साल ‘ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट’ यानी ‘ओईसीडी’ के एक सर्वेक्षण के अनुसार 15 साल से 29 साल के युवकों में 30 प्रतिशत ऐसे हैं, जिनके पास कोई रोज़गार नहीं है और ना ही उनको किसी तरह की ट्रेनिंग ही दी गई है कि उन्हें रोज़गार मिल सके.

2016 में ‘इंडिया स्पेंड’ ने एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसके मुताबिक़ पिछले 30 सालों में भारत में सिर्फ 70 लाख नए रोज़गार ही आए, जबकि ज़रूरत ढाई करोड़ नई नौकरियों की थी.

अर्थशास्त्री और श्रमिक संगठन जिस बात से चिंतित हैं वो है छंटनी, क्योंकि सिर्फ आईटी क्षेत्र की जो 5-6 कंपनियां हैं उन्होंने पिछले कुछ महीनों में 56 हज़ार कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया है.

आईटी क्षेत्र के व्यापार समूह ‘नैसकॉम’ का कहना है कि विपरीत परिस्थितियों के बावजूद एक आईटी क्षेत्र ऐसा है, जहां सबसे ज़्यादा रोज़गार का सृजन हो रहा है.

‘नैसकॉम’ के अध्यक्ष आर चंद्रशेखर के अनुसार केवल वर्ष 2016-17 में इस क्षेत्र ने 1.7 लाख नई नौकरियां दी हैं.


चंद्रशेखर का कहना है कि जो नौकरियां गई हैं उसकी वजह ये है कि लोगों के पास उन कामों को करने के पूरे स्किल नहीं थे.

आर्थिक मामलों के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार एम के वेणु का मानना है कि भाजपा की सरकार के आने के बाद सकल घरेलु उत्पाद यानी जीडीपी में काफी गिरावट आई है.

वे कहते हैं, “यूपीए के दौर में विकास दर 8.5 थी. हालांकि यह विकास दर भी बहुत कम रोज़गार पैदा कर रही थी, अब मोदी राज में 7 प्रतिशत के विकास दर का दावा किया जा रहा है, मगर हालात बता रहे हैं कि वास्तविक दर छह प्रतिशत से नीचे ही होगी.”

वेणु कहते हैं कि जहां तक औद्योगिक उत्पादन का सवाल है, तो उसमें भी एक प्रतिशत की कमी देखी जा रही है.

ऊपर से नोटबंदी की मार भी बेरोज़गारी का बड़ा कारण है. चाहे सरकार इसे स्वीकार करे या ना करे. नोटबंदी की वजह से भी रोज़गार घटा है.

वेणु का कहना है कि यूपीए के कार्यकाल के दौरान औद्योगिक उत्पादन की दर 3 से 3.5 प्रतिशत के आसपास थी, जो अब 2 से 2.5 के आसपास है.

क्या कहते हैं श्रमिक संगठन

संघ परिवार से सम्बद्ध भारतीय मज़दूर संघ यानी बीएमएस के अध्यक्ष विरजेश उपाध्याय कहते हैं, “ये जो आर्थिक नीति का मॉडल तैयार किया गया है वो पूंजीवादी है. इस तरह की बेरोज़गारी के हालात मौजूदा आर्थिक ढाँचे का परिणाम है. पूंजीवाद और बाज़ारवाद पैर जमा रहा है. इसमें पूंजीवादियों को लाभ हो रहा है और बाजार को लाभ हो रहा है. बाक़ी किसी के हाथ कुछ नहीं आ रहा है.”


वो आगे कहते हैं, “भारत में रोज़गार का पारम्परिक स्रोत तो कृषि ही रहा है जिस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है. एक समय में आईटी क्षेत्र में उछाल आया था और अब भारी गिरावट आ रही है. इसके भरोसे बहुत सारे रोज़गार सृजित नहीं किए जा सकते हैं.”


मज़दूर नेता और सेंटर फॉर इंडियन ट्रेड यूनियंस यानी सीटू के तपन सेन कहते हैं, “पिछले तीन सालों में जो भी विदेशी पूँजी निवेश हुआ है वो सिर्फ भारतीय कंपनियों के शेयरों को ख़रीदने के लिए हुआ है. पिछले तीन साल में एक भी ‘ग्रीनफ़ील्ड’ प्रोजेक्ट भारत में नहीं आया. बड़े पैमाने पर हो रहे निजीकरण की वजह से भी बेरोज़गारी बढ़ी है. मिसाल के तौर पर रक्षा क्षेत्र में उत्पादन होने वाले 273 वस्तुओं में से 148 के उत्पादन को ‘आउट सोर्स’ यानी निजी हाथों में सौंपा जा रहा है जबकि जिन्हें यह दिया जा रहा है उन्हें इनके उत्पादन का कोई अनुभव ही नहीं है. अब होगा कुछ ऐसा कि इनके उत्पादन के लिए आखिरकार विदेशी कंपनियों पर निर्भर होना पडेगा. तब तक अपने निजी उत्पादन की क्षमता ख़त्म हो चुकी होगी.”

बढ़ती बेरोज़गारी के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि मंत्रालयों से जो प्रस्ताव मंत्रिमंडल को स्वीकृति के लिए भेजे जा रहे हैं. उनमे अब यह बताना अनिवार्य होगा कि उन योजनाओं से कितने रोज़गार सृजित होंगे.

वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री निर्मला सीतारमण ने हाल ही में कहा कि मंत्री मंडल की हर बैठक में प्रधानमंत्री यही सवाल पूछते हैं कि इस प्रस्ताव से कितने रोज़गार पैदा होने वाले हैं.

इसके अलावा भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों को भी निर्देश भेजे गए हैं कि नई नौकरियां सृजित करने के लिए वो क्या क़दम उठा रहे हैं.

 

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