राजपूत, जाे वंचितों के पक्ष में खडे रहे

रामविलास पासवान (बाएं) और वीपी सिंह

जब कभी वंचितों का इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें सूरज नारायण सिंह, वीपी सिंह, अर्जुन सिंह, वेदपाल तंवर जैसे राजपूत परिवार में पैदा हुए दर्जनों लोगों का भी नाम स्वर्णाक्षरों में दर्ज होगा-

नवल किशोर कुमार

मनुवादी सामाजिक व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष यही है कि इसकी बुनियाद में ही विषमता और समाज को विभाजित करने की प्रवृत्ति है।  उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में दलितों के उत्पीड़न और दलितों द्वारा उसी हिंसक भाषा में जवाब कई सवाल खड़े करता है। मुझे एक पत्रकार के रुप में अब तक दर्जनों ऐसी घटनाओं के बारे में जानने-समझने का अवसर मिला है, लेकिन सहारनपुर की घटना सबसे अलग है।

सहारनपुर में लगी आग की लपटें और झुलसता जनजीवन बिहार के उन दिनों की याद दिलाता है जब भूमि संघर्ष को वामपंथियों ने हाईजैक नहीं किया था। विनोबा भावे का भूदान आंशिक तौर पर भूमि संघर्ष को राजनीतिक स्वरुप प्रदान कर रहा था, जिसका लाभ कांग्रेस समर्थित सामंती ताकतों को मिल रहा था। इसके समानांतर भूमि संघर्ष और मजदूरी को लेकर सवाल उठने लगे थे। मध्य बिहार में यह संघर्ष तीखा इस वजह से भी हुआ क्योंकि नेतृत्व करने वालों में गैर-सवर्ण थे। कुशवाहा समाज से आने वाले जगदेव प्रसाद खेतिहर मज़दूरों और भूमिहीन किसानों की लड़ाई लड़ रहे थे। उधर जय प्रकाश नारायण भी उत्तरी बिहार में मजदूरों और भूमिहीनों (जिनमें शत-प्रतिशत हिस्सेदारी वंचित तबके की थी) में तेजी से बढ रहे असंतोष को लेकर संघर्षरत थे। उन्होंने मुसहरी को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। इसके सकारात्मक परिणाम सामने आये। इनके अलावा बिहार की राजनीति के एक और शिखर पुरुष सूरज नारायण सिंह भी थे जो जाति के राजपूत होने के बावजूद आजीवन दलितों और पिछड़ों के हक-हुकूक के लिए संघर्षरत रहे। उनका मजदूर आंदोलन उत्तर बिहार के चीनी मिलों के शोषण से लेकर नेपाल तक में विस्तृत था।

राजपूत बिरादरी के संवेदनशील लोग

इतिहास कई बार सवाल भी करता है। यदि जगदेव प्रसाद और सूरज नारायण सिंह की हत्या नहीं होती तो संभव था कि बिहार में भूमि संघर्ष और मजदूरों का प्रतिरोध

सूरज नारायण सिंह पर जारी डाक टिकट

हिंसक नहीं होता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और बिहार में शुरु हुआ दलितों और पिछड़ों का राजनीतिक संघर्ष असमय काल के गाल में समा गया।

राजपूत जाति से आने के बाबजूद सूरज नरायण सिंह ने मानवीयत के पक्ष में जिस प्रकार की लडाई लडी, वह बेमिसाल है। सूरज बाबू के कामों का ख्याल आते ही राजपूत समुदाय के आने वाले पूर्व प्रधान मंत्री वीपी सिंह व पूर्व मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह का भी ख्याल आता है, जिन्होंने अन्य पिछडा वर्ग के लिए क्रमश: केंद्र सरकार की नौकरियों और उच्च शिक्षा में आरक्षण की व्यवस्था की और बहुजन समाज के नायक बने।

इन विराट व्यक्तित्वों को तो नजदीक से जानने का मुझे मौका नहीं मिला लेकिन राजपूत समाज से आने वाले एक ऐसे ही व्यक्ति -हरियाणा के वेदपाल तंवर-  के कामों को देखने-समझने का अविस्मरणीय अवसर मुझे कुछ वर्ष पहले मिला था।

 एक मौजूदा मिसाल

वेदपाल तंवर से मेरी मुलाकात वर्ष 2012 में हुई तब हुई जब मैं और फ़ारवर्ड प्रेस के संपादक प्रमोद रंजन एक दलित उत्पीडन की घटना की रिर्पोटिंग करने हरियाणा के हिसार गए थे। सरल और स्पष्टवादी तंवर का दलित प्रेम औरों से अलग था। उनके फ़ार्म हाउस के परिसर में मिर्चपुर के दलित परिवार बसे थे। वही मिर्चपुर जहां 21 अप्रैल, 2010 को दबंग जाटों ने दलितों के  घरों को आग लगा दी थी तथा वाल्मीकि समुदाय के ताराचंद व उसकी अपाहिज पुत्री सुमन को जिंदा जला दिया गया था।  उस समय हरियाणा के दबंगों के तमाम दबाव और सरकारी अत्याचारों को झेलते हुए तंवर और उनका पूरा परिवार मिर्चपुर से पलायन कर हिसार पहुंचे लोगों की सेवा में जुटा हुआ था। यह सेवा सिर्फ पूण्य भाव से की जाने वाली भोजन-पानी की व्यवस्था तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि वे उन्हें न्याय दिलाने के लिए धरना-प्रदर्शन आयोजित करने से लेकर कानूनी लडाई तक लड रहे थे। तब पहली बार लगा कि तंवर जैसे लोग भी आज की फ़िरकापरस्त राजनीति के दौर में मौजूद हैं जिन्होंने अपनी जातिगत सीमाओं को पार कर उन लोगों का साथ दे रहे हैं, जो मजलूम हैं।

दलित उत्पीडन के खिलाफ प्रदर्शन करते वेदपाल तंवर

तंवर पिछले ढाई दशकों से सक्रिय राजनीति में हैं और दलितों के पक्ष में तन, मन व धन के साथ खड़े होने के कारण ही वे हरियाणा की राजनीति में अछूत बने हुए हैं। लेकिन उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं है। दलितों के पक्ष में आंदोलन करने के कारण उन्हें अबतक एक दर्जन बार जेल जाना पड़ा है। वर्ष 2012 में हिसार समाहरणालय के समक्ष भगाना गांव के सामाजिक वहिष्कार के खिलाफ उग्र धरना देने पर उनके खिलाफ़ देशद्रोह तक का मुकदमा चलाया गया।

सहारनपुर की घटना पर वे कहते हैं कि “जिन महाराणा प्रताप की जयंती पर यह सारा बबाल कुछ समाज-विरोधी उपद्रवी तत्वों के खडा किया है, क्या उन्हें स्वयं महाराणा प्रताप के बारे में कोई जानकारी है? महाराणा और भीलों से साथ मिलकर लडाई लडी थी, तब जाकर वे दुश्मन से लोहा ले पाए थे। आज आजाद भारत में  हमारे गांवों के साझा शत्रु हैं – गरीबी, बेरोजगारी, कृषि- अर्थव्यवस्था को कॉरपोरेट कंपनियों द्वारा चौपट किया जाना और अपने ही राजनेताओं का विश्वासघात। क्या ये शत्रु सिर्फ दलितों पर प्रहार करते हैं, क्या  वे राजपूतों को बख्श दे रहे हैं? आज सभी समुदायों को साथ मिलकर इन शत्रुओं से लडने की आवश्यकता है।”

कहने की आवश्यकता नहीं कि जब कभी वंचितों का इतिहास लिखा जाएगा तो सूरज नारायण सिंह,  वीपी सिंह, अर्जुन सिंह, वेदपाल तंवर जैसे राजपूत परिवार में पैदा हुए दर्जनों लोगों का भी नाम स्वर्णाक्षरों में दर्ज होगा।

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