आज के हिंदी अख़बारों के संपादकीय: 15 मार्च, 2018

नवभारत टाइम्स

आधार का आधार

सुप्रीम कोर्ट ने आधार लिंक करने की डेडलाइन इस संबंध में फैसला आने तक बढ़ा दी है। लेकिन सरकार की सब्सिडी वाली योजनाओं के लिए इसकी जरूरत बनी रहेगी। बैंक अकाउंट्स, मोबाइल नंबर और सरकारी योजनाओं से आधार को लिंक कराने की समय सीमा 31 मार्च थी। इन दिनों आधार को लेकर सुप्रीम कोर्ट में ही नहीं पूरे देश में बहस चल रही है, जिसके दो आयाम हैं। एक आपत्ति यह है कि आधार कार्ड से जुड़ने पर व्यक्तिगत निजता का हनन हो सकता है। दूसरी तरफ कुछ लोग इसकी व्यावहारिकता पर सवाल उठा रहे हैं। उनका कहना है कि आधार की अवधारणा गलत नहीं है लेकिन सरकार ने इसे लागू करने के लिए जो तंत्र तैयार किया है, वह अपर्याप्त है। भारत जैसे देश में हर नागरिक तक इसे पहुंचाने के लिए जितने बड़े पैमाने पर प्रयास करने की जरूरत है, वह सरकार नहीं कर रही। दोनों ही आपत्तियों में दम है। पेंशन और जन कल्याण योजनाओं का लाभ लेने वालों के अलावा कई छात्रों से जुड़ी सारी जानकारियां दर्जनों सरकारी वेबसाइटों पर आ चुकी हैं। क्रिकेटर एमएस धोनी की निजी जानकारी भी एक सर्विस प्रोवाइडर द्वारा गलती से ट्वीट की जा चुकी है। ‘सेंटर फॉर इंटरनेट एंड सोसाइटी’ की नई रिपोर्ट के मुताबिक चार अहम सरकारी योजनाओं के तहत आने वाले 13 से 13.5 करोड़ आधार नंबरों और पेंशन उठाने वालों, मनरेगा में काम करने वालों के 10 करोड़ बैंक खातों की जानकारी ऑनलाइन लीक हो चुकी है। दूसरी तरफ आधार कार्ड बनवाना आज भी एक सामान्य व्यक्ति के लिए टेढ़ी खीर है। महानगरों और बड़े शहरों में पढ़े-लिखे लोगों के लिए यह सहज है लेकिन गरीब और अशिक्षित लोग कई व्यावहारिक वजहों से आधार कार्ड नहीं बनवा पा रहे। कस्बों और गांवों में यह लोगों के लिए और भी मुश्किल है। कई जगह लोगों के शरीर के निशान न मिलने या मशीन खराब रहने की समस्या आ रही है। आधार कार्ड न होने से लोगों को तरह-तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा हैं। झारखंड में राशन कार्ड से आधार जुड़ा न होने के कारण तीन लोगों को राशन नहीं मिल सका और भूख से उनकी जान चली गई। ऐसी खबरें कुछ और जगहों से भी आई हैं। लेकिन सरकार और आधार के समर्थक यह दावा कर रहे हैं कि इससे सरकारी मदद पाने वालों की सूचियों से फर्जी नाम हटाने में मदद मिली है, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा है और सरकारी पैसे की बचत हो रही है। आज दुनिया भर के 60 देश अपने लोगों का बायोमीट्रिक डेटा ले चुके हैं। उनके अनुभव से हमें सीखना चाहिए। यह भी सोचना होगा कि भारत जैसे देश में, जहां गरीबी और अशिक्षा बड़े पैमाने पर फैली है, अभी के अभी इसे अनिवार्य बना देना कितना उचित है। सरकार अगर इस मुद्दे पर गंभीर है तो हर नागरिक के लिए आधार कार्ड सुनिश्चित करना वह अपना दायित्व समझे, साथ ही डेटा सुरक्षा की गारंटी भी ले।


नवभारत टाइम्स (संपादकीय-2)

अपमानजनक हार

बिहार और यूपी के उपचुनाव नतीजे सबके लिए चौंकाने वाले साबित हुए। बिहार में भी सत्तारूढ़ जेडीयू-बीजेपी गठबंधन अपने लिए किसी तरह की राहत का दावा नहीं कर सकता, पर कम से कम वहां के नतीजे असाधारण नहीं कहलाएंगे। लेकिन यूपी में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की खाली की हुई दोनों लोकसभा सीटों पर बीजेपी को जो दुर्गति झेलनी पड़ी है, उसकी मिसाल खोजना मुश्किल है। चुनाव से ऐन पहले समाजवादी पार्टी और बीएसपी का साथ आना अहम साबित हुआ होगा, लेकिन विपक्षी प्रत्याशी की जीत का पूरा श्रेय इस एकजुटता को नहीं दिया जा सकता। पिछले लोकसभा चुनावों में इन दोनों सीटों पर बीजेपी को एसपी और बीएसपी प्रत्याशियों को मिले कुल मतों से भी ज्यादा वोट मिले थे। साफ है कि इस जीत के पीछे सिर्फ गणित का कमाल नहीं है। वोटरों के मिजाज की केमिस्ट्री भी इस बीच कुछ बदली है। इस बदलाव में कितना हाथ ऑक्सीजन की कमी से हुई बच्चों की मौत का है और कितना अन्य चीजों का, इसका विश्लेषण बीजेपी को करना है। लेकिन ऊपरी तौर पर एक बात स्पष्ट दिखती है कि यूपी में बीजेपी आज भी लहर से जीतने वाली पार्टी ही है। लोकसभा और विधानसभा, दोनों चुनावों में जीत के पीछे मोदी लहर थी। योगी सरकार ने इसे हिंदू लहर समझकर इसे बनाए रखने की कोशिश की, लेकिन लहर कोई भी हो, स्थायी नहीं होती। बीजेपी को देर-सबेर अपने जमीनी काम से चुनाव जीतने वाली पार्टी बनना होगा। देखना होगा कि पार्टी नेतृत्व इस मोर्चे पर क्या कर पाता है। विपक्ष की यह जीत अगले लोकसभा चुनावों के लिहाज से उसकी एकजुटता की संभावना को तो मजबूती देगी ही, लेकिन बीजेपी के सामने असल खतरा अपने दिग्विजयी प्रचार के जाल में खुद ही फंस जाने का है। 2014 की शानदार जीत के बाद कई बार इसके हिस्से हार भी आई है, लेकिन बीच-बीच में मिलने वाली जीतों को यह इतने जोर-शोर से प्रचारित करती है कि इसकी छवि लगातार जीतती ही रहने वाली पार्टी की बन जाती है। यह छवि आम जनता तक रहे तो ठीक है, लेकिन अगर यह पार्टी कार्यकर्ताओं पर भी हावी हो गई तो अगले लोकसभा चुनाव में उसको लेने के देने पड़ सकते हैं।


जनसत्ता

सुकमा का सबक

छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में मंगलवार को सुरक्षा बलों पर बड़ा हमला कर माओवादियों ने एक बार फिर अपनी मौजूदगी का संदेश देने की कोशिश की है। इस हमले में सीआरपीएफ यानी केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की कोबरा बटालियन के नौ कमांडो शहीद हो गए। हालांकि छत्तीसगढ़ सरकार दावा करती रही है कि माओवादी दस्ते अब खात्मे की ओर हैं और सीमित इलाके में घिर चुके हैं। लेकिन माओवादियों ने जिस तरह सुरक्षा बलों को निशाना बनाया है, उससे यही लग रहा है कि वे कमजोर नहीं पड़े हैं। उनका खुफिया तंत्र अभी भी इस स्थिति में है कि सुरक्षा बलों की गतिविधियों के बारे में उन्हें पल-पल की जानकारी मिल रही है। इसके ठीक उलट सुकमा का हमला माओवादियों के खिलाफ अभियान में लगे सुरक्षा बलों और पुलिस के खुफिया तंत्र की नाकामी को भी उजागर करता है। हमलावरों को पता था कि सुरक्षा बल किस वाहन में सवार हैं और कहां से गुजरेंगे। साफ है कि चूक और लापरवाही हमारे तंत्र में भी है। डेढ़ दशक पहले तक नक्सली बस्तर के इलाके तक सीमित थे, लेकिन पिछले चौदह सालों में जिस तरह इनका दायरा बढ़ा है, उससे लगता है कि प्रदेश सरकार इस समस्या से निपटने में नाकाम साबित हुई है।

इस साल की शुरुआत में छत्तीसगढ़ में अभियान की कमान संभालने वाले पुलिस महानिदेशक ने बस्तर को जल्द ही माओवादी हिंसा से मुक्त कर देने की बात कही थी। लेकिन चौबीस जनवरी को माओवादियों ने नारायणपुर में हमला कर चार जवानों को मार डाला था। उसके बाद अभी चार दिन पहले ही दंतेवाड़ा में मुख्यमंत्री ने अगले पांच साल में प्रदेश को नक्सल मुक्त कर देने का दावा किया। अब सुकमा हमले ने उनके इस दावे पर सवालिया निशान लगा दिया है। एक साल में यह पांचवां बड़ा हमला है। पिछले साल सुकमा जिले में ही एक महीने के भीतर दो बड़े हमले कर माओवादियों ने छत्तीस जवानों को मार डाला था। इससे पता चलता है कि चुनौती से निपटने के मामले में सरकार शायद पंगु हो चुकी है। सुकमा हमले के बाद केंद्रीय गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर ने भी माना कि माओवादियों से निपटने के लिए हमारे जवानों को अत्याधुनिक हथियारों की जरूरत है। सरकार सुरक्षा बलों को नए साजो-सामान से लैस करना चाहती है। जाहिर है, कहीं न कहीं सुरक्षा बलों के पास जरूरी हथियार और प्रशिक्षण की कमी है, जिसकी वजह से माओवादी आसानी से हमलों को अंजाम दे जाते हैं।

माओवादी हिंसा से प्रभावित इलाकों में सुरक्षा बलों के जवानों के समक्ष सबसे बड़ा खतरा बारूदी सुरंगों का है। सुरक्षा बलों को निशाना बनाने के लिए अक्सर बारूदी सुरंगों का इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि 2005 से नक्सल प्रभावित राज्यों को ऐसे बख्तरबंद वाहन मुहैया कराए गए हैं जो बारूदी सुरंगों के हमलों को झेल पाने में सक्षम हों। लेकिन माओवादी अब ज्यादा भारी आइईडी बना कर हमले कर रहे हैं। ताजा हमले में पता चला है कि उन्होंने वाहनों को उड़ाने के लिए जो आइईडी तैयार किया था उसमें अस्सी किलो विस्फोटक था। जाहिर है, सुरक्षा बलों के लिए यह बड़ी चुनौती है। सरकार भी इस तथ्य को जानती और मानती है कि माओवादियों के खात्मे के लिए सुरक्षा बलों को आधुनिक हथियारों और मजबूत खुफिया तंत्र की दरकार है। सवाल यह है कि फिर सरकार नीतिगत स्तर पर कड़े फैसले क्यों नहीं कर पा रही है! समस्या से निपटने के तमाम सरकारी दावों के बावजूद आज भी जवानों पर हमले और उनके शहीद होने का सिलसिला क्यों नहीं थम रहा है?


हिंदुस्तान

उपचुनाव के सबक

अभी-अभी हमने पूर्वोत्तर के दो राज्यों के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की जीत और तीन में उसकी सरकारें बनती देखीं। साथ ही विपक्ष का और सिमटता आकार भी देखा। अब फिर कुछ नतीजे आए हैं, जो बता रहे हैं कि सोता हुआ विपक्ष भी सक्रिय हुआ है और नई करवट ले रहा है। राजनीति में कई पक्ष होते हैं और एक पक्ष को देखकर दूर भविष्य की राह तय करने बैठ जाना न तो आसान होता है, न व्यावहारिक। सच तो यह है कि न तो भाजपा का उत्तर-पूर्व के उन तीन छोटे राज्यों में सफलता के जश्न में डूबना उतना सही था, न ही इस हार के गम में डूबना सही होगा। यही बात विपक्ष पर भी समान रूप से लागू होती है। इन नतीजों ने हमारे लोकतंत्र के विविधता भरे स्वरूप की भी हमें याद दिलाई है।

उपचुनाव, खासकर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर के नतीजों को महज जीत-हार की खुशी और गम से आगे जाकर देखने की जरूरत है। ये और बिहार के अररिया का नतीजा भविष्य की राजनीति के नए संकेतक हैं। गोरखपुर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पारंपरिक सीट है और यहां से वह हमेशा बहुत बड़े अंतर से जीतते रहे हैं। यह सीट योगी के इस्तीफे, तो फूलपुर सीट उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य के इस्तीफे से रिक्त हुई थी। दोनों ही सीटों पर भाजपा की हार से ज्यादा सपा की इतने ज्यादा मतों से जीत नए अर्थ दे रही है। इसने 1992 में मुलायम-कांशीराम के मिलन से भाजपा की हार वाले दौर की याद दिला दी है। हालांकि वह गठजोड़ बहुत लंबा तो नहीं ही चला, बल्कि खासी तल्खी पर आकर टूटा था। गोरखपुर और फूलपुर के इन नतीजों के पीछे भी अखिलेश-मायावती गठजोड़ है, तो इसे एक नई और दूरगामी राजनीति की शुरुआत माना जाना चाहिए। यानी इसे अगर एक बार फिर यूपी से शुरू होने वाली राजनीति की नई दिशा के प्रस्थानबिंदु के रूप में देखा जा सकता है, तो दूसरी तरफ बिहार के नतीजे बताते हैं कि राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद भले ही जेल में हों, लेकिन उन्हें राजनीतिक रूप से अभी पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। अररिया और जहानाबाद में राजद की शानदार जीत को तेजस्वी यादव की नई भूमिका में उदय के रूप में भी देखे जाने की जरूरत है।

इन नतीजों ने एक काम और किया है। जिस 2019 की खूब-खूब चर्चा और इंतजार हो रहा है, उस इंतजार को अब खासा रोचक बना दिया है। तय है कि अगले चुनाव तक का समय राजनीतिक दलों की व्यस्तताओं, नेताओं के नए गुणा-गणित और जनता के अपनी उंगलियों पर भविष्य की गणना करने के नए अवसर दे गया है। इसने याद दिलाया है कि राजनीति में हवाएं हमेशा एक जैसी नहीं बहती हैं। यहां हवाएं अपना मौसम खुद तय करती हैं। इसीलिए कभी इस ओर रुख करती हैं, कभी उस ओर रुख करती हैं। यह भी कि इन हवाओं का रुख राजनेता और दल नहीं, जनता ही तय किया करती है। हां, एक बात जो नहीं भूलने की है, वह यह कि बदली हुई हवाओं ने अगर विपक्ष को उम्मीद भरी राहत दी है, तो उसकी चुनौतियां भी खासी बढ़ा दी हैं। इसने भाजपा को भी सतर्क होने, थोड़ा ठहरकर सोचने-समझने और दूसरों की सुनने का कारण दिया है। सबसे पहले कर्नाटक, फिर राजस्थान और मध्य प्रदेश के चुनाव नई चुनौती बनकर सामने जो खड़े हैं।


अमर उजाला

उपचुनाव का संदेश
राजनीति में एक वर्ष का समय काफी लंबा होता है, लेकिन 2019 के आम चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश उत्तर प्रदेश और बिहार की तीन लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में भाजपा को मिली करारी हार पार्टी के लिए बड़ा झटका है, जिसे अब तक तक अपराजेय माना जा रहा था। गोरखपुर और फूलपुर सीटों के नतीजे इस मायने में अहम अहम में अहम अहम है, क्योंकि ये सीटें योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री और केशव प्रसाद मौर्य के उपमुख्यमंत्री बनने की वजह से रिक्त हुई थीं। आदित्यनाथ खुद पांच बार से गोरखपुर संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीतते आ रहे थे और 1991 से वहां पर पर भाजपा का कब्जा रहा है। नतीजे बता रहे हैं कि भाजपा के चुनावी प्रबंधकों ने सपा को मिले बसपा के समर्थन को कम आंका और यह समझ नहीं सके कि उत्तर प्रदेश की इन बड़ी पार्टियों के मतों का साझा भाजपा के के लिए बड़ी चुनौती बन सकता है।
नतीजों से साफ है कि सपा अपने उम्मीदवारों के पक्ष में बसपा के मतों को स्थानांतरित करवाने में सफल रही। बिहार में राजद ने तसलीमुद्दीन के निधन से रिक्त हुई हुई रिक्त हुई से रिक्त हुई हुई रिक्त हुई हुई अररिया लोकसभा सीट पर फिर से कब्जा किया है और जहानाबाद में भी वह वह विजय हुई है, यह उस राज्य के राजनीतिक गणित की पुनरावृत्ति तो है, लेकिन यह भाजपा के साथ ही नीतीश कुमार के लिए भी झटका है, क्योंकि राजद से रिश्ता तोड़ कर उन्होंने भाजपा का दामन थामा था। इन चुनावों में कांग्रेस की स्थिति कोई अच्छी नहीं रही है, लेकिन इससे पूर्व राजस्थान मध्य प्रदेश में हुए उपचुनावों में उसने बेहतर प्रदर्शन किया था। हालांकि उपचुनाव के नतीजों के आधार पर राष्ट्रीय परिदृश्य के बारे में कोई राय बनाना आसान नहीं है, लेकिन इन नतीजों के दो स्पष्ट संदेश हैं। पहला यह कि अब गैर भाजपा विपक्ष को एकजुट करने की मुहिम तेज हो सकती है, जैसा कि ममता बनर्जी से लेकर उमर अब्दुल्ला की प्रतिक्रियाओं में देखा जा सकता है। दूसरा, इन नतीजों को प्रधानमंत्री मोदी की छोरी से जोड़कर भले न देखा जाए, लेकिन ये भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की चुनावी रणनीति और आदित्यनाथ सरकार की छवि पर सवाल खड़े करते ही हैं। साथ ही यह बही स्पष्ट है कि जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं, वहां उसे सत्ता विरोधी रुझान का सामना करना पड़ रहा है। यह चुनावी हार पार्टी के अति आत्मविश्वास का खामियाजा भी है।


दैनिक भास्कर

उपचुनाव से निकला विपक्ष के लिए एकता का संदेश 

पूर्वोत्तर राज्यों के चुनाव परिणामों ने भाजपा को जश्न मनाने के जो अवसर दिए थे वेे उत्तर प्रदेश और बिहार के तीन लोकसभा उपचुनावों ने छीन लिए हैं। इन परिणामों को सीधे 2019 से जोड़ देना जल्दबाजी होगी लेकिन, इसने बिखर रहे विपक्ष को एकता की नई रोशनी जरूर दी है। बिहार की अररिया लोकसभा और जहानाबाद विधानसभा सीट पहले से राष्ट्रीय जनता दल की रही है इसलिए यहां पर राजद की जीत से लालू की मजबूती और तेजस्वी की लोकप्रियता से बड़ा कोई संदेश नहीं निकलता। बड़ा संदेश निकल रहा है उत्तर प्रदेश की गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव से जहां 2014 के चुनाव में राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य जीते थे और उनके इस्तीफे से यह सीटें खाली हुई थीं। ऐसे समय में जब भाजपा के दिग्विजय का डंका चारों ओर बज रहा है तब देश के सबसे बड़े राज्य की दो अहम सीटों पर हार होना प्रदेश के शासन पर बड़ी टिप्पणी है। यह टिप्पणी उस अव्यवस्था पर है जो कुछ महीने पहले गोरखपुर के अस्पतालों में एनसेफेलाइटिस से बच्चों के मरने पर दिखी थी और सरकार के मंत्रियों के संवेदनहीन बयानों में प्रकट हुई थी। यह अभिव्यक्ति है किसानों और युवाओं की उस नाराजगी की जो कृषि की उपज के उचित दाम और नौकरियां न मिलने से पैदा हुई है। यह उत्तर प्रदेश भाजपा में चल रही खींचतान का परिणाम भी हो सकता है। उससे कहीं ज्यादा यह समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच बने तात्कालिक गठबंधन का असर है। स्पष्ट है कि सामाजिक न्याय की इन दोनों पार्टियों को महसूस हो गया है कि अगर वे राम लहर को रोकने वाले 1993 के मुलायम-कांशीराम गठबंधन को याद करेंगी तो भाजपा का मुकाबला कर सकती हैं और अगर वे 1995 के राज्य अतिथि गृह कांड को याद रखेंगी तो अस्तित्व भी गंवा सकती हैं। हालांकि मायावती ने इस गठबंधन को सिर्फ इन्हीं चुनावों तक बताया था लेकिन, इन चुनावों के अच्छे नतीजों से वे सबक ले सकती हैं और देश में विपक्षी एकता के प्रयासों को अमली जामा पहना सकती हैं। दूसरी ओर बिहार में अररिया और जहानाबाद की सीट कायम रखते हुए राजद ने आत्मविश्वास हासिल किया है और यह दिखाया है कि अगर लालू प्रसाद लंबे समय जेल में रहते हैं तो उनका मतदाता और आक्रामक व एकजुट होगा जो राजग के लिए भारी पड़ेगा।


राजस्थान पत्रिका

फिर हारी भाजपा

पहले गुजरात, फिर राजस्थान और मध्य प्रदेश, और अब उत्तर प्रदेश-बिहार में भाजपा को लगा झटका किसी बड़े  राजनीतिक उलटफेर से कम नहीं माना जा सकता। चार महीने पहले गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा ढाई दशक में पहली बार सौ सीटों से नीचे खिसक गई। जनवरी के आखिर में राजस्थान की दो लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में भाजपा की करारी पराजय। इसके बाद मध्य प्रदेश से उठी हवा अब उत्तर प्रदेश में भी दिखाई पड़ गई। गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा।सीटें भाजपा लाखों मतों से जीती थी लेकिन उपचुनाव में उसे हार का सामना करना पड़ा। बिहार के संसदीय उपचुनाव में भी भाजपा को मुंह की खानी पड़ी। ये वही पांच राज्य है, जिन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को प्रचंड जीत दिलाई थी। इन राज्यों की 200 लोकसभा सीटों में से भाजपा ने 182 पर कब्जा जमाया था। उत्तर प्रदेश की दोनों लोकसभा सीटों पर उपचुनाव में भाजपा की हार कई मायनों में चौंकाने वाली है।
गोरखपुर सीट पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का लम्बे समय से कजा था। फूलपुर सीट पर उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य पिछली बार भारी मतों से विजयी हुए थे। अपने प्रभाव वाले राज्यों में एक के बाद एक हार, भाजपा के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं है। भाजपा विरोधी दलों के लिए इन नतीजों में एक संदेश छिपा है। दोनों सीटों पर दो धुर विरोधी दलों का एक होकर चुनाव लड़ना बड़ा फैसला था। समाजवादी पार्टी के प्रत्याशियों को बसपा का समर्थन विपक्षी एकता की शुरुआत के रूप में देखा जा सकता है। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव भारी बहुमत से जीतने वाली योगी सरकार चार दिन बाद अपना एक साल का कार्यकाल पूरा करने जा रही है। दोनों सीटों के उपचुनाव को सरकार के कामकाज की कसौटी के रूप में भी देखा जा रहा था। इस लिहाज से माना जा सकता है कि राज्य की जनता सरकार के कामकाज से खुश नहीं है। भाजपा इन चुनाव नतीजों को उपचुनाव मानकर हल्के में ले रही है तो विपक्ष को इस जीत से नई ऊर्जा मिली है। उत्तर प्रदेश में मिली इस जीत को विपक्ष कितना भुना पाता है ये तो आने वाला समय ही बताएगा। लेकिन नतीजों ने 2019 के लोकसभा चुनाव के अत्यंत रोमांचक होने की नींव जरूर रख दी है।

 

दैनिक जागरण

उपचुनावों का संदेश

उपचुनावों के नतीजे मुश्किल से ही भविष्य और खास तौर पर आम चुनावों के लिए कोई स्पष्ट संदेश देते हैं, लेकिन वे एक ओर जहां जीत हासिल करने वाले दलों को उत्साह और ऊर्जा प्रदान करते हैं वहीं दूसरी ओर पराजित दलों की चिंता बढ़ाते हैं। उत्तर प्रदेश एवं बिहार के उपचुनावों के नतीजे और ज्यादा ऐसा करेंगे, क्योंकि आगामी लोकसभा चुनाव में अब बमुश्किल एक साल की ही देर रह गई है। उत्तर प्रदेश में गोरखपुर और फूलपुर के नतीजे भाजपा को इसलिए कहीं ज्यादा चिंतित करने वाले हैं, क्योंकि देश को यही संदेश गया कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य अपनी छोड़ी हुई सीट पर अपने लोगों को जीत नहीं दिला सके। गोरखपुर और फूलपुर के मुकाबले बिहार की अररिया लोकसभा सीट और जहानाबाद एवं भभुआ विधानसभा सीट के नतीजे भाजपा और साथ ही जदयू के लिए इस कारण कहीं कम आघातकारी हैं, क्योंकि जो सीट जिस दल के पास थी उसके ही खाते में गई। बिहार में ऐसे नतीजे आने पर भाजपा और जदयू संतोष भी जता सकते हैं, लेकिन वे न तो अपने और विरोधी दलों के वोट प्रतिशत की अनदेखी कर सकते हैं और न ही इसकी कि लालू यादव के जेल जाने के बाद भी उनका प्रभाव बना हुआ है। लगता है जाति की राजनीति के आगे भ्रष्टाचार कोई बड़ा मसला नहीं। भाजपा और जदयू बिहार के उपचुनाव नतीजों की व्याख्या चाहे जिस रूप में करें, उत्तर प्रदेश में गोरखपुर और फूलपुर के नतीजे इसके अतिरिक्त और कुछ रेखांकित नहीं कर रहे हैं कि एकजुट विपक्ष आगे भी भाजपा पर भारी पड़ सकता है। अगर एक क्षण के लिए यह मान भी लिया जाए कि गोरखपुर और फूलपुर में कम वोटिंग प्रतिशत ने भाजपा को और ज्यादा नुकसान पहुंचाया तो भी यह सवाल तो उठेगा ही कि आखिर भाजपा नेता अपने लोगों को मतदान के लिए उत्साहित क्यों नहीं कर सके?1उत्तर प्रदेश में गोरखपुर और फूलपुर में भाजपा की करारी हार और बिहार में अररिया में राजद की उल्लेखनीय जीत के बाद भी ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी कि ये नतीजे आगामी चुनाव की झलक हैं, लेकिन भाजपा और उसके सहयोगी दल इस तथ्य को ओझल नहीं कर सकते कि विरोधी दलों को ठीक उस समय बल मिला है जब वे उनकी राह रोकने की तैयारी कर रहे हैं। बीते दिन ही सोनिया गांधी की पहल पर एक दर्जन से अधिक दलों ने एकजुटता दिखाई थी। यह सही है कि अभी नेता, नीति और विचार के मामले में उनमें कोई स्पष्टता नहीं दिख रही है, लेकिन वे इस संदेश तो लैस हो ही गए हैं कि एकजुट होकर आसानी के साथ अनुकूल नतीजे हासिल किए जा सकते हैं। हालांकि उपचुनावों में मतदाता सरकार गठन के इरादे से मतदान नहीं करते, लेकिन भाजपा इसकी अनदेखी नहीं कर सकती कि जब उसके विरोधी दल एकजुट हो जाते हैं तो उसे पचास फीसद वोट हासिल करना मुश्किल हो जाता है। उसे न केवल वोटों के इस गणित को हल करना होगा, बल्कि यह भी देखना होगा कि उपचुनावों में जनता उसके प्रति लगातार नाराजगी क्यों प्रकट कर रही है?


प्रभात खबर

टीबी से मुक्ति

संक्रामक रोगों में तपेदिक (टीबी) दुनियाभर में सर्वाधिक घातक रोगों में शुमार है. इसकी रोकथाम में बड़ी मुश्किल अब यह आ रही है कि मलेरिया जैसी कई बीमारियों की तरह टीबी के रोगाणुओं में भी एंटीबायोटिक्स दवाओं से लड़ने और उन्हें नाकाम करने की क्षमता (एंटी माइक्रोबियल रेजिस्टेंस) पैदा हो गयी है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक, इस प्रतिरोधक क्षमता के कारण होनेवाली मौतों की एक बड़ी वजह टीबी और एचआईवी संक्रमण हैं. हालांकि, साल 2000 के बाद से वैश्विक स्तर पर टीबी पर अंकुश लगाने की कोशिशों के कारण तकरीबन सवा पांच करोड़ लोगों की जान बचायी गयी है और इस रोग से होनेवाली मौतों की दर में 37 फीसद की कमी आयी है, लेकिन तपेदिक के तेज प्रसार को देखते हुए यह उपलब्धि कम मानी जायेगी. वर्ष 2016 में विश्व स्तर पर 1.04 करोड़ टीबी के नये मामले सामने आये थे.

तपेदिक के मामले में भारत की स्थिति और भी ज्यादा संगीन है. दुनिया में टीबी के सबसे ज्यादा मरीज (करीब 28 लाख) भारत में हैं और 2016 में इस रोग से देश में 4.23 लाख रोगियों की मौत हुई. तपेदिक की भयावहता को देखते हुए इसके खात्मे के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नये अभियान की सराहनीय पहल की है. वैश्विक स्तर पर तपेदिक के खात्मे का लक्ष्य साल 2030 रखा गया है, पर भारत ने 2025 तक इसे पूरा करने का इरादा किया है. इस संदर्भ में टीबी की दवाइयों की कीमतें कम करने की जरूरत है.

बेशक सरकार ने टीबी की जांच और उपचार की नि:शुल्क व्यवस्था की है, लेकिन सरकारी स्वास्थ्य संसाधनों की कमी के कारण तपेदिक के बहुत से मरीजों को निजी क्लीनिकों और अस्पतालों में उपचार कराना पड़ता है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, कुछ राज्यों में ऐसे मरीजों की तादाद 50 फीसदी या इससे भी ज्यादा है. फिलहाल एंटी माइक्रोबियल रेजिस्टेंस वाले तपेदिक मरीजों के उपचार में इस्तेमाल की जानेवाली दो दवाओं- बेडाक्यूलाइन और डेलामेनिड- को 2023 के अक्तूबर तक भारत में पेटेंट कानूनों के तहत संरक्षण हासिल है.

ये दवाएं महंगी होने के कारण ज्यादातर मरीजों की जेब पर बहुत भारी पड़ती हैं. जब तक सरकार विश्व व्यापार संगठन के ट्रिप्स समझौते के तहत इन दवाओं को हासिल विशेषाधिकार को खत्म नहीं करती है, इस कोटि की जेनेरिक दवाएं नहीं बनायी जा सकतीं. इस कोटि की जेनरिक दवाएं बनाने पर खर्च 95 फीसदी तक कम हो सकता है.

हमारे देश में एंटी माइक्रोबियल रेजिस्टेंस टीबी के मरीजों की तादाद ज्यादा है, लेकिन फिलहाल ऐसे पांच मरीजों में मात्र एक मरीज का ही प्रभावी दवाओं के सहारे उपचार हो रहा है. ऐसे में सरकार को अपनी पहल में मरीज के उपचार की सहूलियत के लिए कारगर दवाओं की कीमतें कम करने की दिशा में तुरंत उपाय करने चाहिए. साथ ही, इस रोग के बारे में जानकारी और जागरूकता का प्रसार भी जरूरी है.


देशबन्धु

उपचुनाव का संदेश

उत्तरप्रदेश और बिहार में उपचुनावों के नतीजे एक बार फिर भाजपा के लिए बड़ा झटका साबित हुए हैं। 2014 के आम चुनाव में उत्तरप्रदेश में भाजपा ने भारी जीत दर्ज करते हुए 80 में से 70 सीटें हासिल की थी, यहां तक कि प.नेहरू की संसदीय सीट फूलपुर पर भी कमल खिल गया था। जबकि बहुजन समाज पार्टी का तो खाता भी नहीं खुल पाया था। सपा, कांग्रेस की सीटें भी उंगलियों पर गिनने लायक थीं। इसके बाद विधानसभा चुनावों में भी भाजपा ने सभी विरोधी दलों को पटखनी दी थी। इन जीतों से अतिउत्साहित भाजपा यह मानकर चलने लगी थी कि वह अजेय है, यानी उसे कभी कोई हरा नहीं सकता। इसलिए उत्तरप्रदेश में गोरखपुर और फूलपुर की संसदीय सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे भाजपाइयों के लिए अप्रत्याशित हैं।

लोकतांत्रिक राजनीति में भी एकाध अपवाद को छोड़ दें तो ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि मुख्यमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र में ही सत्तारूढ़ पार्टी को हार देखनी पड़ी। और भाजपा के लिए दोहरा झटका इस लिहाज से है कि उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री यानी आदित्यानाथ योगी की सीट गोरखपुर और केशवप्रसाद मौर्य की सीट फूलपुर भाजपा के हाथ से निकल गई है। गोरखपुर तो बीते ढाई दशकों से भाजपा के पास ही सुरक्षित रही। अपने गुरु के बाद आदित्यनाथ योगी यहां से लगातार पांच बार सांसद रहे।

गोरखपुर में रहना है तो योगी-योगी कहना है, जैसे जुमले उनके दबदबे के कारण चल पड़े थे। इसलिए भाजपा आश्वस्त थी कि गोरखपुर सीट तो उसके पास से नहीं जाएगी, फूलपुर में भी वह 2014 का प्रदर्शन दोहरा लेगी। लेकिन राजनीति में स्थायी कुछ भी नहीं होता। अब गोरखपुर से प्रवीण कुमार निषाद और फूलपुर से नागेंद्र प्रताप सिंह, समाजवादी पार्टी के इन दोनों प्रत्याशियों ने जीत हासिल की है। वैसे यह जीत अकेले समाजवादी पार्टी की नहीं है, बल्कि सपा-बसपा गठबंधन की है, जिसका मखौल योगीजी ने केर-बेर संग कहते हुए उड़ाया था। लेकिन जनता ने अपना फैसला बता दिया कि उसे भाजपा के मुकाबले यह गठबंधन अधिक पसंद आया है।

विश्लेषक इसे 2019 का सेमीफाइनल बता रहे हैं, अगर इस हिसाब से देखें तो अगले आम चुनाव भाजपा के लिए आसान नहीं होने वाले हैं। इस गठबंधन में कांग्रेस शामिल नहीं थी और उसने अपने प्रत्याशी अलग उतारे थे, अगर वह भी सपा-बसपा का साथ देती तो शायद जीत और बड़ी होती। वैसे कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी को इस बात पर विचार करना चाहिए कि अगर वे सचमुच भाजपा के विरोध में अन्य दलों को साथ लेकर मुकाबला करना चाहते हैं तो इस तरह अलग प्रत्याशी उतारने का क्या अर्थ? गठबंधन पर काम जितना जल्द शुरु होगा, चुनाव में रणनीति बनाने में उतनी आसानी होगी।

अब बात करें बिहार की, तो यहां भी अररिया लोकसभा सीट राजद के खाते में गई और भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। अररिया पर जीत के साथ यह भ्रम भी टूट गया कि लालू प्रसाद के जेल में होने से राजद के हौसले पस्त हैं। यह भी साफ हो गया कि महागठबंधन से नीतीश के अलग होने का फैसला जनता को पसंद नहीं आया। इस सीट के लिए नीतीश कुमार ने पूरी ताकत लगा दी थी और भाजपा तो सांप्रदायिक कार्ड खेलने से भी नहीं चूकी थी। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नित्यानंद राय ने राजद उम्मीदवार सरफराज आलम के खिलाफ बयान देते हुए कहा था कि अगर सरफराज जीता तो यह क्षेत्र आतंकवादी संगठन आईएसआईएस का सुरक्षित पनाहगाह बन जाएगा। इसके बाद उनके ऊपर केस भी दर्ज हुआ। लेकिन किसी भी तरह चुनाव जीतने के लिए भाजपा शायद ऐसी तिकड़मों से परहेज नहीं करती है। गनीमत रही कि भाजपा का सांप्रदायिक कार्ड यहां नहीं चला और लालू प्रसाद का पुराना एम वाए फार्मूला फिर कारगर साबित हुआ।

विश्लेषक बताते हैं कि उप्र मेंं सपा-बसपा गठबंधन का भी सकारात्मक संदेश यहां काम आया। जहानाबाद विधानसभा उपचुनाव में भी राजद से कृष्णमोहन यादव ने जीत दर्ज की, जबकि भभुआ विधानसभा सीट भाजपा की रिंकी रानी पांडेय ने जीत ली है। भभुआ विधानसभा सीट पर प्रत्याशी उतारने के लिए पहले राजद और कांग्रेस में सहमति नहीं बन रही थी, लेकिन फिर राजद ने कांग्रेस के लिए सीट छोड़ दी थी। वैसे तो यह सीट पहले भी भाजपा के पास थी और अब भी उसके पास ही है। लेकिन अगर राजद का प्रत्याशी यहां खड़ा होता, तो शायद यहां भी कोई फेरबदल देखने मिल सकता था।

बहरहाल, भाजपा के लिए इस बार स्कोर 5 में से 1 रहा। अब कम से कम उसे कांग्रेस मुक्त या विपक्षमुक्त भारत का सपना देखना छोड़ देना चाहिए। राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार हर जगह उपचुनावों में मात खा रही भाजपा को यह सच्चाई स्वीकार करनी चाहिए कि जनता ने एक बार उसे मौका दिया, लेकिन दोबारा उसे नकार दिया तो कहीं न कहीं खामी भाजपा की नीतियों में है