इमरजेंसी-डर और माफ़ीनामों के बाद आई वह ख़बर जिसके लिए पूरी रात जागा देश !

चश्मदीद पत्रकार की ज़बानी, इमरजेंसी की कहानी-2

सुशील कुमार सिंह

 

सब तरफ अब इमरजेंसी की कहानियां थीं। आजादी के बाद देश इन्हें पहली बार सुन रहा था। कितने लोग पकड़े गए। किस नेता को कहां से पकड़ा गया। गिरफ्तारी के बाद उसे किस जेल में ले जाया गया। यह भी कि कौन अभी तक पकड़ में नहीं आया। कुछ ऐसे भी नेता थे जो अंडरग्राउंड रह कर कांग्रेस के कुछ खास नेताओं की चिरौरी करने में लगे थे। मसलन बंसीलाल, ओम मेहता, विद्याचरण शुक्ल इत्यादि की। वे इन्हें समझाने की कोशिश करते कि आप तो जानते ही हैं कि मैं इंदिरा जी का कितना बड़ा फ़ैन हूं, लेकिन पता नहीं किसने मेरा नाम पुलिस को दे दिया है, प्लीज़ कुछ कीजिए, मैं तो घर भी नहीं जा पा रहा। इनमें कुछ नेताओं का काम बना तो कुछ का नहीं बना। मगर ये उन नेताओं के अलावा थे जिन्होंने गृह मंत्रालय और प्रधानमंत्री दफ्तर को माफीनामे भेजे।

प्रेस पर अंकुश अपनी पूरी घिनौनी बजबजाहट के साथ सामने आया। अखबार और पत्रिकाएं बाकायदा सेंसर होने लगे। कहानियां इस बात की भी थीं कि कौन सा अखबार किस तरह लड़ने के प्रयास कर रहा है। साहित्य में अगर कहीं कोई कुछ हिम्मत कर रहा था तो उसकी भी खूब चर्चा होती थी।

शहर में कई जगह इंदिरा गांधी के बीस सूत्री और संजय गांधी के पांच सूत्री कार्यक्रमों के बड़े-बड़े होर्डिंग लग गए थे। कितने ही लोगों को मैं कहते सुनता था कि सब जगह लाइनें लगने लगी हैं और सरकारी कर्मचारी समय पर दफ्तर पहुंचने लगे हैं। जवाब में दूसरे लोग कहते कि बहुत अच्छा हुआ, कामकाज में अनुशासन तो होना ही चाहिए। इमरजेंसी को लेकर अनगिनत चुटकुले भी चल निकले थे। हम लोग खुद किसी को झगड़ते या कोई गड़बड़ी करते देखते तो मजाक में कहते, एक बात याद रखना, मीसा में छह महीने तक जमानत नहीं है। पान वालों, चाय वालों और ढाबे वालों से इमरजेंसी की कहानियां सुनने में बड़ा मजा आता था।

हमारे एक मित्र धनंजय, जो बड़े भाई जैसे थे, उन दिनों शाहदरा के गोरख पार्क इलाके में रहते थे। उनके घर दोस्तों का जमावड़ा लगा रहता था। हम कई-कई दिन लगातार उनके यहां जमे रहते। एक रात जब उनके यहां चाय बनाने का सामान खत्म हो गया तो हम छह-सात लोग चाय पीने के लिए बाहर निकले। बाहर मार्केट में कहीं कोई दुकान नहीं खुली थी। थोड़ा आगे आए तो सोचा कि शाहदरा स्टेशन सामने ही है, वहां चला जाए। मगर स्टेशन पर भी कोई चाय वाला नहीं मिला। हार कर हम वापस चल दिए।

बाबरपुर रोड पर आधे रास्ते ही पहुंचे थे कि हमें पुलिसवालों ने रोक लिया। उनमें से एक ने कहा, ‘कहां से आ रहे हो इतनी रात को, इतने लोग एक साथ?‘ हमने कहा- ‘चाय ढूंढ़ने निकले थे, मिली ही नहीं।’ पुलिसवाला बोला- ‘चाय पीने, आधी रात को?’ हममें किसी को समझ में नहीं आया कि इसका क्या जवाब दें। सब खामोश थे। उन पुलिसवालों का जो बॉस था, वह बारी-बारी हममें से हर किसी के पास गया। किसी के बाल खींचे, किसी के कान उमेठे, किसी की बांह मरोड़ी और मेरे दाएं हाथ की उंगलियां बिलकुल पीछे घुमा दीं। हम सब दहशत में आ गए। उसने सबसे पूछा कि क्या करते हो। हममें से ज्यादातर लोग कुछ नहीं करते थे। केवल एक सोम प्रकाश थे जिन्हें दनकौर के पास एक स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल गई थी। सबके जवाब सुनने के बाद वह पुलिसवाला बोला- ‘अब समझ में आया। ये मास्टर है और तुम सब इसके चेले हो। और यह कोई वारदात करवाने के लिए तुम्हें लेकर इतनी रात को बाहर घूम रहा है।‘ यह सुन कर हम लोग और हताश हो गए। वे पास खड़ी जीप में हमें बिठाने की तैयारी ही कर रहे थे कि तभी सोम प्रकाश ने हिम्मत जुटा कर उनके बॉस से कहा- ‘देखिए, आप अधिकारी हैं, आप जो चाहे कर सकते हैं, लेकिन यह सच है कि हम लोग केवल चाय के लालच में स्टेशन तक गए थे।’ बॉस कुछ देर सोम प्रकाश को घूरता रहा और फिर पसीज गया। उसने हमसे गोरख पार्क का पूरा पता पूछा और कहा- ‘जाओ, सीधे घर पहुंचो। मैं तुम्हारे पीछे अपने आदमी भेज रहा हूं।’

इमरजेंसी के अहसास से यह मेरा पहला सामना था। इसके बाद हम गोरख पार्क वाले घर से देर रात को फिर कभी बाहर नहीं निकले। इसके अलावा सोम प्रकाश के घर गाजियाबाद भी मेरा लगभग हर हफ्ते का आना-जाना था। इसके लिए पहले मैं बस से दिल्ली रेलवे स्टेशन जाता और फिर ट्रेन पकड़ता। वहां से कई शटल ट्रेनें चलती थीं जो मुझे बहुत कम पैसे में गाजियाबाद पहुंचा देती थीं। ये गाड़ियां अक्सर प्लेटफार्म पर काफी पहले आकर खड़ी हो जाती थीं।

सर्दियों के दिन थे और वह चार नंबर प्लेटफार्म था। शटल खड़ी देख मैं फटाफट चढ़ गया। उस दिन मेरे हाथ में कई किताबें थीं जो मुझे सोम प्रकाश को वापस करनी थीं। उनमें एक महात्मा गांधी से संबंधित किताब थी और एक आल्बेयर कामू के ‘आउटसाइडर’ का हिंदी अनुवाद ‘अजनबी’ था। मैं एक किनारे आराम से बैठ गया, किताबें बगल में रख दीं और खिड़की से बाहर प्लेटफार्म की गतिविधियां देखने लगा। थोड़ी देर में ट्रेन चली। उसके चलते ही वहां दो लोग प्रकट हुए। एक मेरे सामने बैठा और दूसरा मेरे पड़ोस में। बगैर पूछे उन्होंने मेरी किताबें उठा लीं और उन्हें उलटने-पलटने लगे। फिर सामने बैठे व्यक्ति ने अधिकार पूर्वक पूछा- ‘आप कहां जा रहे हैं?’

मैंने बताया- ‘गाजियाबाद।’

उसने आगे पूछा- ‘गाजियाबाद में कहां?’

मैंने कहा- ‘वहां आर्यनगर में मेरा एक मित्र रहता है। उसी के पास जाना है।‘

वह बोला- ‘उसका पूरा ऐड्रेस बताइए।‘

मैंने कहा- ‘लेकिन आप यह सब क्यों पूछ रहे हैं?‘

सामने बैठा व्यक्ति बोला- ‘जो हम पूछ रहे हैं, चुपचाप उसका जवाब देते जाइए, बगैर झूठ बोले।‘ अचानक मैंने गौर किया कि डिब्बे में मेरे अलावा कोई नहीं था और वे दोनों इस तरह बैठे थे कि उनसे बचने के लिए अगर मैं भागना चाहूं तो भाग न सकूं।

मैंने सोम प्रकाश का मकान नंबर बताया। फिर उन्होंने पूछा कि आपका मित्र क्या करता है, खुद आप क्या करते हैं, आप कब-कब उसके पास जाते हैं, आपके और कौन-कौन मित्र हैं और क्या वे भी सोम प्रकाश को जानते हैं। पड़ोस में बैठे व्यक्ति ने तो यहां तक पूछा कि जब आपके सारे मित्र कहीं जुटते हैं तो उनका क्या प्रोग्राम रहता है और उनकी बातचीत के विषय क्या होते हैं।

मेरे जवाबों में आवारागर्दी के अलावा जब उन्हें कोई और गड़बड़ी नहीं दिखी तो उन्होंने मेरी किताबें वहीं रख दीं और उठ खड़े हुए। शायद साहिबाबाद स्टेशन पर वे उतर गए या किसी और डिब्बे में चले गए। उनके उतरने के बाद मैंने डिब्बे में चक्कर लगाया। सिर्फ एक आदमी मिला। टॉयलेट के पास, बीड़ी पीता हुआ। उसे गुमान तक नहीं था कि अभी-अभी वहां क्या गुजरा है। गाजियाबाद आने पर मैं लपक कर उतरा। पैदल ही सोम प्रकाश के घर पहुंचा और उसे छत पर ले जाकर सारी घटना सुनाई। वे भी सुन कर सन्नाटे में आ गए।

इमरजेंसी से यह मेरी दूसरी मुलाकात थी। इन मुलाकातों का असर यह हुआ कि जब भी कोई मुझे ऐसी ही आपबीती सुनाता तो मैं उसके डर को महसूस कर सकता था। बाद में जब निर्मल वर्मा का ‘रात का रिपोर्टर’ पढ़ा तो लगा जैसे अपने इमरजेंसी के अहसासों की पुष्टि हो रही है।

आखिरकार 1977 आया और चुनाव हुए। फिर वह दिन आया जब हमने रात भर जाग कर इंदिरा गांधी के चुनाव हारने की खबर का इंतजार किया। इससे पहले हम कई दोस्त लगभग पूरी रात तब जगे थे, जब वेस्ट इंडीज में भारतीय क्रिकेट टीम को जीत के लिए चार सौ से ज्यादा रनों का पीछा करने का रिकॉर्ड बनाना था। तब कमेंटरी सुननी थी और अब समाचार। दोनों में ही हमारा मकसद भारत की जीत था।

अगले दिन गाजियाबाद से मैं दिल्ली आया। कनॉट प्लेस में जनता पार्टी के बैनर लगाए कुछ ऑटो रिक्शा चक्कर लगा रहे थे। उन पर लगे लाउडस्पीकर चीख रहे थे- ‘धन्यवाद, धन्यवाद, जनता पार्टी पर भरोसा जताने के लिए और देश में लोकतंत्र को बचाने के लिए हम आपको धन्यवाद देते हैं।’ शाम को श्रीकृष्ण ने एक अखबार में छपा वह फोटो दिखाया जिसमें एक सफाई कर्मचारी इंदिरा गांधी की तस्वीर वाला पोस्टर बाकी कचरे के साथ कूड़ा ले जाने वाली हाथगाड़ी में डाल रहा था।

(जारी)

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘समय की चर्चा’ के संपादक हैं।