क्या दलित आंदोलन अब जमीन के मुद्दे पर मजबूत होने जा रहा है?

पिछले हफ्ते गुजरात के पाटन जिले में एक दलित अधिकार कार्यकर्ता भानुप्रसाद वानकर द्वारा आत्मदाह के बाद दलितों के बीच भूमिहीनता का मुद्दा फिर उभार पर है. 61 वर्षीय वानकर राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच के नेता थे. खबरों के मुताबिक वे जिला प्रशासन से कुछ दलित परिवारों को उनके अधिकार क्षेत्र की भूमि का मालिकाना हक दिलवाने की कोशिश कर रहे थे और जिला प्रशासन लंबे समय से इस मामले को टाल रहा था. इसी से परेशान होकर वानकर ने आत्मदाह किया है.

वानकर की मौत के बाद पूरे गुजरात में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए थे और इसके चलते गुजरात सरकार को कुछ फैसले करने पड़े हैं. वह दलितों को उनकी जमीन का मालिकाना हक देने के लिए सहमत हो गई है. इसके साथ ही राज्य सरकार ने विधायक जिग्नेश मेवाणी सहित हिरासत में लिए गए प्रदर्शनकारियों को रिहा करने के बात मानते हुए कहा है कि वह प्रदर्शनकारियों की दूसरी मांगों पर भी विचार करेगी.

गुजरात में बीते कुछ समय के दौरान भूमि आवंटन का मुद्दा दलित राजनीति के केंद्र में आ चुका है. इसकी शुरुआत उना आंदोलन से हुई थी. जिग्नेश के साथ ही इस आंदोलन से निकले और नेता तब से ही संवैधानिक अधिकारों और जातिगत भेदभाव की अपनी चर्चा के दौरान भूमि के स्वामित्व को मुद्दा बनाते रहे हैं.

ये नेता मानते हैं कि जमीनों पर दलितों का अधिकार उनको हाशिए पर धकेलने की कोशिशों को खत्म कर देगा और सामाजिक-आर्थिक आधार पर उनके साथ होने वाले भेदभाव को भी खत्म करने में मददगार साबित होगा. मेवाणी ने 2016 में ही दलित अस्मिता यात्रा का नेतृत्व किया था और इसकी सबसे प्रमुख मांग थी कि हर एक भूमिहीन परिवार को पांच एकड़ जमीन दी जाए.

हालांकि मुख्यधारा की तमाम पार्टियां अब तक ऐसी मांगों को नकारती रही हैं. इसलिए हैरानी की बात नहीं कि इन पार्टियों से अलग दूसरे मंचों के जरिए इस समय भूमि के मुद्दे पर दलित आंदोलन में तेजी आती दिख रही है.

2011 के सामाजिक-आर्थिक और जाति सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में 67 फीसदी से ज्यादा दलित परिवार भूमिहीन हैं. दलितों में भूमिहीनता की स्थिति आदिवासियों से भी ज्यादा खराब है और इसीलिए केरल जैसे राज्यों, जहां कुछ हद तक भूमि सुधार हुआ है, में भी यह चिंता का विषय है.

बाकी राज्यों ने जो भी सुधार किए हैं वो किसानी के लिए जमीन किराए पर लेने से आगे नहीं जा पाए हैं और इसमें भी ज्यादातर फायदा पिछड़ी जातियों को मिला है. वहीं इस दौरान दलितों के भूमि के मालिकाना हक का मुद्दा जस का तस बना रहा और सामाजिक रूप से ताकतवर जातियां अपनी भूमि को बढ़ाती रही और दलितों को हाशिये पर धकेलती रहीं. हालांकि देश में गांधीवादी – भूदान आंदोलन से लेकर कम्यूनिस्ट पार्टियों की अगुवाई में हुए आंदोलनों के जरिए भू-आवंटन के मुद्दे को सुलझाने की कोशिश की गई है, लेकिन इनमें भी इससे जुड़े जातिगत पहलू को कोई तवज्जो नहीं दी गई.

दलितों का यह नया आंदोलन भूमिहीनता को जातिगत मुद्दा बनाकर लगातार उठा रहा है. वहीं सरकारें भूमि की कमी का हवाला देकर इस मांग को खारिज कर रही हैं. हालांकि यह आंदोलन सरकार के इन दावों के खिलाफ भी दलीलें पेश कर रहा है. हो सकता है अब इस दिशा में कोई बड़ा सुधार या कोई नया प्रयोग ही कारगर साबित हो, लेकिन कुल मिलाकर शासन-प्रशासन को अब इस तरफ तेजी से ध्यान देना चाहिए.