क्षेत्रीय दल यदि साथ आ जाएं तो भाजपा-कांग्रेस के बुरे दिन आ सकते हैं

उत्तर प्रदेश में हाल में हुए राज्यसभा चुनाव परिणाम के बाद बसपा प्रमुख मायावती के प्रेस कॉन्फ्रेंस ने राजनीतिक बहस का मुख मोड़ दिया है.

अमूमन राज्यसभा चुनाव विश्लेषकों के लिए बहुत रोचक नहीं होते हैं. इसका कारण इन चुनावों में ज्यादातर परिणाम संभावित होते हैं.

परिणाम अप्रत्याशित होने की संभावना कम ही होती है लेकिन पिछले कुछ समय से इस देश का हर चुनाव, यहां तक कि पंचायत और शहरी निकाय के चुनाव भी महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं.

आजकल इन चुनावों पर भी लंबी-लंबी चर्चा होती है और इसके आंकड़ों के आधार पर राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य की दशा और दिशा तय होने लगती है.

पिछले साल के अंत में गुजरात चुनाव, इसी महीने मार्च में उत्तर-पूर्व राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम और हाल में उत्तर प्रदेश में हुए लोकसभा के दो उपचुनाव के परिणाम ने विश्लेषकों के बीच उथल-पुथल मचा रखी है.

महज एक साल पहले जिस मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को अजेय घोषित किया जा रहा था उसके बारे में अब कहा जा रहा है कि 2019 का लोकसभा चुनाव इतना भी आसान नहीं होगा जितना पहले सोचा जा रहा था.

2019 में परिणाम क्या आएगा अभी इसके बारे में बात करना ठीक नहीं होगा. बहरहाल पिछले एक साल में ऐसा क्या हुआ कि अचानक से चुनावी परिणाम की पिक्चर थोड़ी धुंधली-सी नजर आने लगी है?

क्या कुछ मूलभूत सैद्धान्तिक पहलुओं को नजरअंदाज किया गया या फिर उसके ऊपर किसी का ध्यान ही नहीं गया?

इस सवाल का जबाब ढूंढने से पहले पिछले कुछ समय के राजनीतिक घटनाक्रम को देखिये. उत्तर-प्रदेश में दो चिर-प्रतिद्वंदी पार्टी बसपा और सपा ने मिलकर उपचुनाव लड़ा, उन्हें जीत मिली.

राज्यसभा के चुनाव में बसपा प्रत्याशी नहीं जीत पाया लेकिन फिर मायावती ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा है कि इससे उनके मन मे सपा और अखिलेश यादव के लिए कोई द्वंद्व नहीं है.

Mayawati Akhilesh Facebook

फोटो साभार: फेसबुक

झारखंड में कांग्रेस के पास पर्याप्त वोट नहीं थे लेकिन झारखंड मुक्ति मोर्चा के समर्थन से कांग्रेस के उम्मीदवार राज्यसभा पहुंच गए.

पश्चिम बंगाल में भी कुछ इसी तरह से ममता बनर्जी ने अपना समर्थन कांग्रेस को दिया और केरल में लेफ्ट पार्टी ने शरद यादव गुट के प्रत्याशी को राज्यसभा पहुंचाने में सहयोग किया.

इसके अतिरिक्त हाल ही में तेदेपा के चंद्रबाबू नायडू का एनडीए से बाहर आना और सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव की मांग करना आदि कुछ ऐसी बातें हैं जो इस तरफ ध्यान आकर्षित करती हैं कि भारतीय राष्ट्रीय चुनाव को समझने के लिए उसके राज्य में हो रहे विभिन्न राजनीतिक घटनाक्रम को समझना पड़ेगा.

यानी कि राज्य के राजनीतिक प्रारूप को समझना जरूरी है. राज्य एक अहम कड़ी है. 1980 के दशक के अंतिम कुछ वर्षों से ही विभिन्न राज्यों में कई पार्टियों का उदय हुआ और 1990 के दशक में कई प्रमुख क्षेत्रीय पार्टियां उभरीं जिनकी उस राज्य के राजनीति में न सिर्फ अहम भूमिका रही बल्कि उसने राज्य पर शासन भी किया.

आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू. (फोटो: पीटीआई)

टीडीपी प्रमुख एन चंद्रबाबू नायडू. (फोटो: पीटीआई)

इसके अलावा राज्यों में इन क्षेत्रीय दलों के प्रभुत्व की वजह से राष्ट्रीय पार्टियों खासकर कांग्रेस का काफी नुकसान हुआ और कई राज्यों में आज कांग्रेस चौथे-पांचवें स्थान की पार्टी हो गयी है.

उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि कई ऐसे उदाहरण है.

राज्यों में क्षेत्रीय दलों की राजनीति के महत्व को ज्यादा गहराई से समझना हो तो इस बात से भी समझा जा सकता है कि 1996 के लोकसभा चुनाव से ही औसतन 235 सीटों पर कांग्रेस और भाजपा के अलावा क्षेत्रीय दलों ने जीत हासिल की है.

अगर वोट के आंकड़ों को भी देखें तो इसी दौर में कांग्रेस और भाजपा का वोट प्रतिशत मिलाकर भी औसतन 50 प्रतिशत के पास ही रहा है.

पिछले लोकसभा चुनाव में भी ये आंकड़ा सिर्फ 51 प्रतिशत के पास रहा और ये दोनों पार्टियां मिलकर सिर्फ 326 सीटें ही जीत पाईं. यानी कि एक महत्वपूर्ण संख्या में वोट और सीट क्षेत्रीय पार्टियों के बीच रही है. जिसे आप आगे के दो ग्राफ में देख सकते हैं.

ग्राफ 1 – दो बड़ी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा द्वारा जीती गयी कुल सीटें और अन्य छोटी पार्टियों की कुल सीटें

political graph 1

नोट: लोकसभा में कुल 545 सीटें हैं लेकिन सिर्फ 543 पर ही चुनाव होते हैं. दो सदस्यों को नामित किया जाता है.

ग्राफ: 2 – कांग्रेस व भाजपा का वोट प्रतिशत और अन्य पार्टियों का वोट प्रतिशत

political graph 2

नोट: सभी आंकड़ें प्रतिशत में हैं. वोट प्रतिशत को राउंड ऑफ करके दिया गया है.

2014 के आम चुनाव में मोदी और भाजपा के प्रति लोगों में भरपूर समर्थन के बावजूद छोटी पार्टियों को 49 प्रतिशत वोट मिले जो कि कांग्रेस और भाजपा दोनों को मिलाकर मिले वोट से सिर्फ दो फीसदी ही कम है.

एक और बड़ी बात ग्राफ-2 से पता चलती है कि पिछले छह लोकसभा चुनावों में छोटी पार्टियों के वोट प्रतिशत में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है सिर्फ कांग्रेस और भाजपा के वोट में ही स्विंग हुआ है.

छोटी पार्टियां राष्ट्रीय स्तर के असर से बेअसर रही है लेकिन एक बड़ी बात जो इसमे छुप जाती है वो यह कि उन राज्यों में जहां क्षेत्रीय दल प्रभावशाली रहे हैं वहां राज्य स्तरीय पार्टियों के बीच भी प्रतियोगिता रही है.

इसको इस अनुसार भी समझ सकते है कि छोटी पार्टियों के कुल वोट प्रतिशत में तो बड़ा अंतर नहीं आया है लेकिन जब इसे राज्य के स्तर पर देखेंगे तो वहां उसी राज्य के दो प्रमुख पार्टियों के सीटों में बड़ी फेरबदल हुई है और एक पार्टी को अपने राज्य स्तरीय प्रतिद्वंदी के हाथों सीटें गवानी पड़ी है.

Mamta Chandrashekhar Rao PTI

ममता बनर्जी और चंद्रशेखर राव (फोटो: पीटीआई)

तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार आदि इसके उदहारण हैं.

इसके अलावा 2004 के चुनाव का बारीक अध्ययन करें तो भाजपा के वोट प्रतिशत में सिर्फ दो प्रतिशत का नुकसान हुआ था लेकिन वो 1999 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले 44 सीटें हार गई थी जबकि कांग्रेस का भी वोट एक प्रतिशत गिरा था लेकिन फिर भी 1999 के मुकाबले वो 31 सीटें ज्यादा जीतने में सफल रही थी.

इसकी वजह ये थी कि 2004 में कांग्रेस 1999 के मुकाबले 36 कम सीटों पर चुनाव लड़ी थी मतलब उसने पिछले चुनाव के मुकाबले अपने गठबंधन के अन्य पार्टियों को ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने को दिया था जिसका परिणाम यह रहा कि राष्ट्र स्तर पर इंडिया शाइनिंग कैंपेन के वावजूद भाजपा अपनी सरकार नहीं बचा पाई.

2014 का चुनाव कुछ मामलों में थोड़ा अलग था. भाजपा को उत्तर प्रदेश में अप्रत्याशित सफलता हासिल हुई उसके उलट वहां की दो बड़ी पार्टियों सपा और बसपा को काफी नुकसान हुआ.

दोनों पार्टियों को मिलाकर 42.12 प्रतिशत वोट मिले थे जो कि भाजपा को मिले वोट से सिर्फ आधा (0.5) प्रतिशत ही कम थे लेकिन दोनों के अलग-अलग चुनाव लड़ने की वजह से भाजपा 71 सीटें जीतने में सफल रही थी और सपा सिर्फ 5 सीटें और बसपा को कोई भी सीट नहीं मिली.

अब अगर ये दोनों पार्टियां राज्य में गठबंधन करके (जैसाकि मीडिया रिपोर्ट से प्रतीत होता है) चुनाव लड़ती हैं तो 2019 के लोकसभा चुनाव में एक बड़ा फर्क उत्तर प्रदेश में दिखेगा.

साथ ही राज्यसभा के चुनाव की तरह अगर कांग्रेस अलग-अलग राज्यों में वहां की छोटी पार्टियों को थोड़ा महत्व देखते हुए ठीक से गठबंधन करने में सफल रही तो राष्ट्रीय स्तर पर भी कुछ अलग परिदृश्य देखने को मिल सकता है.

(लेखक अशोका यूनिवर्सिटी में रिसर्च फेलो हैं)