गोरखपुर उपचुनाव: जहां बात मंदिर और हाता की पकड़ से बाहर चली गयी है!

सिद्धांत मोहन / गोरखपुर से लौटकर


रविवार की सुबह जब गोरखपुर और फूलपुर के मतदान केंद्र खुले, तो यहां के वोटरों के सामने केवल अपना सांसद चुनने की रस्‍मी जिम्‍मेदारी भर नहीं थी. वे दरअसल भारत और उत्तर प्रदेश के कुछ सबसे बड़े व प्रभावशाली राजनीतिक दलों की प्रयोगशालाओं में काम करने उतर रहे थे. कमाल यह कि वोटरों को इस बात का ज़रा भी भान नहीं था.

गोरखपुर और फूलपुर में जो दल और जो प्रत्याशी खड़े हैं, उसे जीत की तैयारी मान लेना थोड़ी जल्दबाज़ी है. भाजपा के प्रत्याशियों और संगठन की तैयारी को देखें और उनके बरअक्स समाजवादी कार्यशैली और प्रत्याशियों को देखें तो ये साफ़ पता चलता है कि दोनों ही मुख्य धड़े कोई सीट जीतने से ज़्यादा अपने प्रयोगों का परिणाम देखने उतरे हैं. चूंकि अगले साल लोकसभा चुनावों में फिर से इन दोनों ही सीटों पर मतदान होगा, तो पार्टियों की रणनीति को देखकर लगता है कि वे एक साल पहले के समीकरणों को समझने में लगी हुई हैं.

गोरखपुर की राजनीति को संचालित करने में गोरखनाथ मंदिर का बहुत बड़ा हाथ है. साथ ही गोरखपुर के मशहूर ‘तिवारी अहाता’  उर्फ़ ‘हाता’ ने भी यहां की राजनीति को प्रभावित करने में मंदिर से कम भूमिका नहीं निबाही है. पहले मंदिर की बात करें तो मंदिर के महंत योगी आदित्यनाथ उर्फ़ अजय सिंह बिष्ट इस समय सूबे के मुख्यमंत्री हैं. जब इस उपचुनाव के लिए टिकटों पर मंथन शुरू हुआ तो योगी आदित्यनाथ की ओर से कई सारे नाम सामने आए, जिसमें प्रमुख नाम योगी कमलनाथ का था  जो मौजूदा वक़्त में गोरखनाथ मंदिर के पुजारी हैं. और कमलनाथ ही नहीं, योगी आदित्यनाथ द्वारा सुझाए गए सारे नाम लगभग-लगभग मंदिर या ख़ुद योगी से जुड़े हुए थे.

जब चयन की बारी आयी तो भारतीय जनता पार्टी ने योगी के सभी नामों को कुचलते हुए उपेन्द्र शुक्ला को टिकट दे दिया. उपेन्द्र शुक्ला को टिकट दिए जाने से योगी के अंदर भिन्न-भिन्न रास्तों से कुलबुली मची. एक, शुक्ला ठहरे ब्राह्मण और गोरखपुर के साथ-साथ लगभग पूरा प्रदेश ही जानता है कि योगी आदित्यनाथ ख़ुद कितने बड़े ठाकुर समर्थक और प्रकारांतर से ब्राह्मणविरोधी हैं. दो, शुक्ला जी का नाम आया संगठन की तरफ़ से, जिसमें मंदिर की कोई सुनवाई नहीं और न कोई पहचान. और लगभग तीन कि योगी आदित्यनाथ और उपेन्द्र शुक्ला के बीच संबंध अच्छे कभी नहीं रहे. लेकिन मौजूदा वक़्त में योगी ने इन तीनों फ़ैक्टरों को किनारे सरिया दिया है और खुलकर उपेन्द्र शुक्ला का प्रचार कर रहे हैं. लेकिन यहां ये बात भी क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि यदि शुक्ला जी चुनाव में मुश्किल से जीत पाए, या मुश्किल तरीक़े से हार ही गए — जिसकी संभावना इस पीस के लिखे जाने तक तो नहीं ही दिखती है — तो योगी आदित्यनाथ इन तीनों फ़ैक्टरों को किनारे से उठाकर ले आएंगे और भाजपा के सामने रखकर पूछेंगे कि क्या पार्टी 2019 में भी यही चाह रही है?

इसी लिहाज़ से उपेन्द्र शुक्ला का नामांकन एक प्रयोग के तौर पर देखा जाना चाहिए क्योंकि बहुत वर्षों बाद मंदिर का इस राजनीति में दख़ल सिर्फ़ एक प्रचार माध्यम के तौर पर रह गया है. यदि भाजपा मुश्किल परिणामों का सामना करती है, तो संभव है कि वह फिर से पुराने फ़ार्मूले पर शिफ़्ट कर जाए, लेकिन यदि फ़ार्मूला सही तरीक़े से काम कर जाता है तो योगी आदित्यनाथ को आइडेंटिटी सर्वाइवल के लिए किसी और रास्ते पर चलना होगा.

रोचक बात तो ये है कि गोरखपुर के वोटर भी इस बात को समझ रहे हैं कि मौजूदा चुनाव में योगी आदित्यनाथ महज़ एक शो-पीस हैं, सारा काम भाजपा सम्हाल रही है. गोरखपुर के धर्मशाला मुहल्ले में टेम्पो में मिले राजकुमार जायसवाल बताते हैं, “गोरखपुर की राजनीति में योगी जी का वर्चस्व हमेशा से रहा है, लेकिन इस बार ये समझ में आ रहा है कि ख़ुद उनकी भी पकड़ कमज़ोर हो गयी है.” राजकुमार जायसवाल का कहना सही भी है क्योंकि जिस शक्ति के बूते पर योगी आदित्यनाथ ने अपनी रैडिकल छवि को विराट किया और गोरखपुर में राज किया, मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने ख़ुद ही उस शक्ति को कुचलकर ख़त्म कर दिया. उस मरतुल्ली शक्ति का नाम ‘हिन्दू युवा वाहिनी’  हुआ करता था.

गोरखपुर में ‘हिन्दू युवा वाहिनी’ का कोई नामलेवा नहीं है. योगी के मुख्यमंत्री के रूप में चुने जाने के बाद कुछेक महीनों तक इधर-उधर हिन्दू युवा वाहिनी की धूम दिखाई दे जाती थी, लेकिन ‘भगवा-प्राइड’ से लबरेज़ युवा अब उत्तर प्रदेश में बीते दिनों की बात सरीखे हो गए हैं. गोरखनाथ मंदिर के प्रांगण में मौजूद दुकानदार भी बताते हैं कि बीते कई महीनों से हिन्दू युवा वाहिनी का नाम नहीं सुना गया. वाहिनी के पोस्टर, तिकोने झंडे, स्टिकर, बिल्ले सब के सब अब भारतीय जनता पार्टी के सोफ़े के नीचे रखे गए मालूम होते हैं. शहर के हिन्दूबहुल इलाक़े इस कमी को समझते भी हैं. “पहले तो यहां भाजपा को कोई नहीं जानता था. सब ये जानता था कि वाहिनी लड़ रही है. वाहिनी के लोग प्रचार भी करते थे और वोटर पर्ची भी बांटते थे. अब थोड़ा हाई-फ़ाई हिसाब दिखता है. सब जगह भाजपा का फ़ैंसी प्रचार दिखता है”, ऐसा अजय यादव कहते हैं, जो धर्मशाला बाज़ार में मिले.

अपने अपराधों को छिपाने और वाहिनी उनकी छाया में और अपराध न करे, यह सुनिश्चित करने के लिए   योगी आदित्यनाथ ने वाहिनी पर तो ताला जड़ दिया, लेकिन इसके साथ उन्हें इस पावर सेंटर के साथ भी समझौता करना पड़ा, जिसके लिए वाहिनी ने बहुत बड़ी भूमिका निबाही थी. अब हिन्दू युवा वाहिनी का ग़ायब होना, उपचुनाव को मंदिर के बजाय भाजपा द्वारा नियंत्रित करने के कारण कहीं न कहीं मंदिर के परंपरागत वोटर भी छिटके-छिटके से नज़र आते हैं. गोरखपुर में बात करने पर लगभग मुझे तो यही पता चलता रहा कि लोग धीरे-धीरे मंदिर की राजनीतिक शक्ति पर भरोसा खो देंगे.

अब भाजपा के इस समीकरण के सामने समाजवादी पार्टी द्वारा बनाया गया गठबंधन देखिए, जिसमें बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय लोक दल, कुछ वामपंथी पार्टियों के अलावा पीस पार्टी और निषाद पार्टी प्रमुख घटकों के रूप में शामिल हैं. गोरखपुर के साढ़े तीन लाख निषादों के बीच निषाद पार्टी के संस्थापक संजय कुमार निषाद ने बड़ा काम किया है. बामसेफ की ट्रेनिंग से लबरेज़ संजय का इस गठबंधन में शामिल होना निषाद पार्टी से ज़्यादा समाजवादी पार्टी के लिए फ़ायदेमंद साबित होगा क्योंकि इस समीकरण की बदौलत समाजवादी पार्टी शायद अपने वोटों में कुछ इजाफ़ा कर सके. बुधवार को अखिलेश यादव की रैली में मंच पर बसपा, रालोद या कम्युनिस्ट पार्टियों से कोई शामिल तो नहीं था, लेकिन अखिलेश यादव ने धन्यवाद सबका किया. लेकिन अखिलेश की रैली में जो भीड़ जुट पाई है, उसका सीधा श्रेय सिर्फ़ निषाद पार्टी को दिया जा सकता है अन्यथा अपने दम पर कोई ग़ैर-भगवा दल एक जनसमूह का निर्माण कर पाने में गोरखपुर में लगभग असफल है.

चूंकि गोरखपुर में कांग्रेस की प्रत्याशी सुरहिता क़रीम चटर्जी की ज़मानत ज़ब्त होने के पूरे आसार बने हुए हैं, ऐसे में यहां दो ही दलों के बीच की लड़ाई है- सपा गठबंधन और भाजपा. सपा गठबंधन की ज़मीन पर पकड़ मजबूत हुई है. उर्दू बाज़ार और रसूलपुर के वोटर – जो बहुतायत में मुस्लिम हैं – यह साफ़ करते हैं कि उनके वोट सपा गठबंधन को जा सकते हैं, लेकिन कुछ यह भी स्वीकार करते हैं कि गोरखपुर में मंदिर से बैर करना लगभग नामुमकिन है, इसलिए वोट भाजपा को देंगे.

गोरखपुर में जिस चीज़ ने समीकरणों को सबसे अधिक संदेह में रखा हुआ है, वह है बाभन फ़ैक्टर. गोरखपुर के ब्राह्मण किधर जाएंगे, इसे लेकर कोई पुख़्ता स्थिति नहीं बन पा रही है. भाजपा के प्रत्याशी तो हैं ब्राह्मण, लेकिन योगी ठहरे ब्राह्मणविरोधी, तो क्या ब्राह्मण वोट सपा गठबंधन को चला जाएगा? शहर के ब्राह्मणों के सबसे बड़े पावर सेंटर तिवारी हाता में जाने पर भी इस सवाल का जवाब नहीं मिलता है. बसपा नेता हरिशंकर तिवारी और उनके पुत्र विनयशंकर तिवारी ने गोरखपुर के ब्राह्मणों के दम पर अपना वर्चस्व क़ायम किया है. दोनों ही बसपा के बड़े नेता हैं और योगी के बड़े दुश्मन. दुश्मनी का आलम यह है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने सबसे पहला काम किया कि उन्होंने हाता पर पुलिस का छापा पड़वा दिया. यह घटना इसलिए कल्पनातीत भी है क्योंकि यह वही हाता है जिसमें यूपी पुलिस तीन दशकों में घुसने में सौ बार सोचती थी. इस औचक छापे में पुलिस ने हाता के सात लोगों को गिरफ़्तार कर लिया और योगी ने यह भी साबित कर दिया कि गोरखपुर में किसका सिक्का चलता है.

छापेमारी से ब्राह्मण ग़ुस्साए और उन्होंने योगी के खिलाफ़ शहर में प्रदर्शन किया और रैलियां निकालीं. इससे फ़ांक थोड़ी और गहरी हो गयी लेकिन मौजूदा उपचुनाव के दौरान तिवारी हाता में एसयूवी जस के तस खड़ी हैं. बसपा द्वारा सपा को समर्थन देने की घोषणा के बावजूद हाता का हर दिन एक आम दिन जैसा है. हाता की दिनचर्या में चुनाव या प्रचार को लेकर कोई गहमागहमी नहीं है, न कोई बैनर, न कोई पोस्टर, न ही एक भी झंडा. जब मैं पहुंचा तो विनयशंकर तिवारी पूरी तल्लीनता से लखनऊ में विधानसभा सत्र अटेंड कर रहे थे और ब्राह्मण वोटों के संदर्भ में बसपा यहां गोरखपुर में सपा को बीच में लटकाए हुए थी. हाता में मिले अखिलेश नाथ त्रिपाठी बताते हैं, “अभी तो ऐसा कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि प्रचार के लिए कुछ किया जाए. विधायक जी कुछ बताएंगे तो देखा जाएगा.”

हाता की चुप्पी ब्राह्मण वोटों को लेकर भ्रम पैदा कर रही है. लेकिन पूरे गोरखपुर में हाता की राजनीति इसी तरीक़े से चुपचाप चलते रहने के कारण प्रसिद्ध है. हाता ने कभी भी अपने पत्ते नहीं खोले हैं, न ही यह ज़ाहिर होने दिया है कि वह शक्ति और सत्ता में आगे बढ़ने के लिए क्या क़दम उठाएगा. मौजूदा समय को आदर्श मानकर देखें तो हाता एक अवसरवादी परिदृश्य में गहरे बैठा दिखाई देता है जो यदि सपा गठबंधन में जीत जाए तब तो ख़ुश ही रहेगा और यदि भाजपा का ब्राह्मण प्रत्याशी जीत जाए तो भी ‘ख़ुश’ होने के डेढ़ सौ तरीक़े निकाल सकता है.

गोरखपुर में समीकरण इतने कठिन हैं कि भाजपा के लिए संभवत: ख़ुद इस परिस्थिति पर विश्वास करना कठिन साबित हो रहा है. जीत के लिए भाजपा कोई भी हथकंडा अपनाने में पीछे नहीं हट रही है. इस हफ़्ते मंगलवार को संजय निषाद अपने कई सौ समर्थकों के साथ गोरखनाथ मंदिर में जाकर दर्शन कर आए. गोरखनाथ मंदिर पर निषादों का एक पुराना दावा रहा है और उस दावे को संजय निषाद लगभग हमेशा भुनाते रहे हैं. लेकिन मंदिर में दर्शन और बाहर प्रेस कॉन्फ़्रेन्स करके संजय निषाद अपने अगले ठिकाने की ओर गए होंगे, तो उन्हें नहीं मालूम था कि अगले दिन गोरखपुर के इक्कादुक्का अख़बार ही उनके इस करतब को छाप सकेंगे.

मीडिया ब्लैकआउट का मामला एक हफ़्ते पहले भी हुआ था, जब लाख छुपाने के बाद भी भाजपा के क़रीबी पत्रकारों ने इस बात का पता लगा लिया कि प्रत्याशी उपेन्द्र शुक्ला कैम्पेन के दौरान ही दिमाग़ में ख़ून के थक्‍के का इलाज कराने लखनऊ अचानक पहुंचे और तब से लौटकर वे योगी आदित्यनाथ की दुहाइयां देते नहीं थकते हैं. लेकिन इतनी झंझटों के बावजूद भाजपा अभी भी एक ऐसे जोश से भरी हुई है जो अंधकार की ओर ले जाता है. ऐसे में यदि भाजपा और सपा गठबंधन के बीच का चुनाव कुछ नयी हेडलाइन बना जाए, तो एंटी-बीजेपी राजनीति के लिए एक सुखद क्षण होगा और सपा का प्रयोग सफल.