ग्राउंड रिपोर्ट : केशव मौर्य का एहसान चुका रहे हैं अतीक़ अहमद ?

उत्तर प्रदेश की फूलपुर लोकसभा सीट के उपचुनाव में अंतिम क्षणों में बतौर निर्दलीय उम्मीदवार अतीक़ अहमद की एंट्री ने सबको चौंकाया भले ही हो लेकिन जानकार इसे पूर्व नियोजित बता रहे हैं.

ऐसा न सिर्फ़ राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है बल्कि पूरे इलाहाबाद में ये चर्चा आम है, सिवाय बीजेपी के बड़े नेताओं और अतीक़ अहमद के परिवार वालों और समर्थकों के.

फूलपुर सीट उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के इस्तीफ़े के कारण खाली हुई है. केशव मौर्य साल 2014 में यहां से पहली बार संसद में पहुंचे थे और उन्होंने ये जीत बड़े अंतर से हासिल की थी. आज़ादी के बाद बीजेपी पहली बार यहां कामयाबी का परचम फहरा पाई थी.

बदल गए समीकरण

वहीं अतीक़ अहमद साल 2004 में यहां से समाजवादी पार्टी के टिकट पर संसद में पहुंचे थे. अतीक़ अहमद इसके पहले इलाहाबाद की शहर पश्चिमी विधान सभा सीट से कई बार विधान सभा पहुंच चुके थे.

मुस्लिम बहुल इस सीट पर अतीक़ अहमद की जीत सुनिश्चित करने में यदा-कदा केशव प्रसाद मौर्य की भी भूमिका रहती थी क्योंकि कई बार यहां वो बतौर बीजेपी उम्मीदवार उनके सामने होते थे.

इलाहाबाद में वरिष्ठ पत्रकार अखिलेश मिश्र कहते हैं, “केशव मौर्य और लक्ष्मीशंकर ओझा बीजेपी के उम्मीदवार के रूप में यहां से चुनाव लड़ते थे. इन चुनावों में ये लड़ाई में कहीं नहीं दिखे बल्कि इनकी सक्रियता से कुछ हद तक हिन्दू और मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण ज़रूर होता था और इससे अतीक़ अहमद की जीत की राह और आसान हो जाती थी. ये अलग बात है कि बीएसपी की ओर से राजू पाल और पूजा पाल के आने से अतीक़ को चुनौती भी मिली और उनका शहर पश्चिमी से जीत का तिलिस्म भी टूटा.”

अतीक़ अहमद इलाहाबाद शहर पश्चिमी सीट से 1989 से चुनाव लड़ते आए हैं. साल 1989 से लेकर 2002 तक वो यहां से लगातार विधायक होते रहे. तीन चुनाव अतीक ने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर लड़े, फिर उन्होंने समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिया. साल 2002 में भारतीय जनता पार्टी की ओर से उन्हें केशव मौर्य ने चुनौती दी, लेकिन अतीक अहमद फिर जीत गए.

2004 में अतीक अहमद ने फूलपुर से लोकसभा चुनाव लड़ा और विजयी रहे. 2004 में ही अतीक के भाई अशरफ़ को उपचुनाव में बसपा के राजूपाल ने हरा दिया. राजूपाल की अगले ही साल हत्या हो गई. बसपा ने उपचुनाव में उनकी पत्नी पूजा पाल को टिकट दिया. लेकिन इस बार अशरफ़ जीत गए और पूजा पाल हार गईं. 2004 में बीजेपी की ओर से केशव मौर्य जबकि 2005 में लक्ष्मीशंकर ओझा उम्मीदवार थे. दोनों लोगों को महज़ कुछ हज़ार वोट ही मिले.

‘डमी उम्मीदवार नहीं हैं अतीक़’

2007 में अतीक़ अहमद ने फिर से इस सीट का रुख़ किया लेकिन इस बार पूजा पाल ने उन्हें हरा दिया. इलाहाबाद की राजनीति को समझने वाले बताते हैं कि साल 2002 से लेकर 2007 तक हुए चार चुनावों में केशव मौर्य की उग्र हिन्दूवादी छवि के कारण मतों का ध्रुवीकरण हुआ और उसका सीधा लाभ अतीक़ अहमद या फिर उनके भाई को मिला.

हालांकि न सिर्फ़ केशव प्रसाद मौर्य बल्कि जेल में बंद अतीक़ अहमद का चुनाव कार्य देख रहे उनके बीस वर्षीय बेटे उमर अहमद भी इस बात को नकारते हैं. केशव प्रसाद मौर्य तो इस सवाल पर सीधे इलाहाबाद की राजनीति को न समझने का आरोप मढ़ देते हैं जबकि उमर अशरफ़ को इस बात पर बेहद आपत्ति है कि उनके पिता फूलपुर में ‘डमी कैंडिडेट’ के तौर पर पेश किए जा रहे हैं.

उमर अशरफ़ कहते हैं, “मेरे अब्बा ने शुरू से ही बीजेपी जैसी सांप्रदायिक पार्टियों के ख़िलाफ़ लड़ाई की है. वो बीजेपी को जिताने में मददगार बनेंगे, ऐसा कभी हो ही नहीं सकता. फूलपुर में उनके और बीजेपी के बीच सीधी लड़ाई है.”

किसे होगा फायदा

लेकिन पत्रकार अखिलेश मिश्र दावा करते हैं कि अतीक़ अहमद और केशव प्रसाद मौर्य में वैसे काफ़ी मित्रता भी है लेकिन दिखाने के लिए दोनों एक-दूसरे के राजनीतिक दुश्मन नहीं बल्कि व्यक्तिगत दुश्मन जैसे दिखाते हैं.

वो कहते हैं, “अब आज जब बीजेपी सत्ता में है और अतीक़ अहमद के ‘बुरे दिन’ चल रहे हैं तो केशव का एहसान चुकाने का उनके लिए ये अच्छा मौक़ा है. जिस तरीक़े से आख़िरी दिन सारी औपचारिकताएं पूरी करके अतीक़ अहमद ने नामांकन किया, वो बिना सरकारी मदद के संभव नहीं हो सकता. दूसरे, ये सबको पता है कि इससे फ़ायदा किसका होने वाला है.”

इलाहाबाद में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता विभाकर शास्त्री कहते हैं, “अतीक़ अहमद को बीजेपी ने खड़ा किया या नहीं, इस बारे में कुछ नहीं कह सकते, लेकिन जिस तरह से बीजेपी मुख्य मुक़ाबला अतीक़ अहमद के साथ प्रचारित कर रही है, उससे तो यही लगता है.”

वोटर समझदार है’

हालांकि सपा और बसपा के एक साथ आने के कारण बीजेपी के नेताओं में थोड़ी बेचैनी बढ़ी ज़रूर है लेकिन केशव प्रसाद मौर्य जीत के प्रति आश्वस्त हैं.

वो कहते हैं, “2014 में हमारा संगठन भी ज़मीनी स्तर पर ठीक से तैयार नहीं था तब हमें 52 प्रतिशत वोट मिले. अब तो हम बहुत मज़बूत हैं, साठ प्रतिशत से कम नहीं मिलेंगे.”

केशव मौर्य बीजेपी प्रत्याशी का मुख्य मुक़ाबला सपा और अतीक़ अहमद के बीच मानते हैं. लेकिन आम लोग इस गठबंधन के बाद बीजेपी की जीत को उतनी आसान नहीं मान रहे हैं.

फूलपुर क्षेत्र में बमरौली इलाक़े के एक बुज़ुर्ग हाजी अब्दुल मोईद कहते हैं, “बाहरी उम्मीदवार के चलते भाजपा बच गई, नहीं तो लोग इनके काम-काज से ख़ुश नहीं हैं. दूसरे, सपा-बसपा के मिलने से दलित-पिछड़ा वोट ज़्यादातर सपा को ही मिलेगा.”

हाजी मोईद मुस्कराकर ये भी कहते हैं, “अब मतदाता होशियार हो गया है, आप बातों से नहीं समझ सकते कि वो बटन कहां दबाने जा रहा है.”

वहीं बीजेपी नेता भी दलितों और पिछड़ों के एक बड़े हिस्से के समर्थन का दावा कर रहे हैं. जहां तक सवाल अतीक़ अहमद की उम्मीदवारी का है तो ये निश्चित है कि उनको जो भी वोट मिलेगा वो ज़्यादातर ग़ैर बीजेपी होगा, लेकिन इलाहाबाद के पत्रकार प्रवीण कुमार के मुताबिक, “यदि अतीक़ अहमद सपा उम्मीदवार को नुक़सान पहुंचाएंगे तो कांग्रेस उम्मीदवार मनीष मिश्र भी भाजपा को नुक़सान पहुंचाने की ताक़त रखते हैं.”

कुल मिलाकर, चुनावी शोर भले ही धीमा सुनाई पड़ रहा है लेकिन चुनावी गणित यहां काफी उलझन भरा है