नोटबंदी के फ़ेल होने पर देश में गुस्सा क्यों नहीं?

आप कल्पना कर रहे होंगे कि भारत में ‘काला धन’ बाहर लाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नोटबंदी का फ़ैसला ग़लत साबित होने पर लोग नाराज़ होंगे.

देश की 86 फ़ीसदी करंसी को चलन से बाहर करने के हैरानी भरे फ़ैसले पर काफ़ी हंगामा भी हुआ था.

एक वक़्त ऐसा लगा था कि दुनिया की सातवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के सभी 1.2 अरब लोग बैंकों के बाहर लाइन में खड़े हैं.

लेकिन यह सिर्फ असुविधा का मुद्दा नहीं था, यह उससे कहीं ज़्यादा था जिससे सभी प्रभावित थे.

बता दें कि हक़ीक़त में भारत में ज़्यादातर लेन-देन नकद भुगतान से होते हैं.

कारोबार पर असर

नोटबंदी की वजह से कई बिजनेस ठप पड़ गए, कई ज़िंदगियां तबाह हो गईं. बहुत से लोगों के पास खाने तक के लिए पैसे नहीं थे.

नोटबंदी की घोषणा होने के बाद अपनी नौकरी खोने वाले सैकड़ों ख़नन मजदूरों में से एक ने बीबीसी को बताया, ”हमने कभी नहीं सोचा था कि हमें इस तरह बेसहारा कर दिया जाएगा.”

”हमने कभी ये उम्मीद नहीं की कि हमारे बच्चे भूखे रहेंगे.”

कैश की कमी के चलते लोगों की ज़िंदगी पर बुरा असर पड़ा.

नाराज़ क्यों नहीं हुए लोग

बिहार में एक शख्स ने फ़ैसले पर चिंता जताते हुए कहा था, ”कल मेरी बेटी की शादी है और मुझे हर चीज़ के लिए पैसे देने हैं, लेकिन अभी मेरे पास कुछ नहीं है.”

”हमें पुराने नोट देकर नए नोट लेने के बारे में बताया गया. उनकी बातों में आकर हमने सारे नोट जमा तो कर दिए, लेकिन बदले में हमें कुछ नहीं मिल रहा.”

इस फ़ैसले से क़रीब एक करोड़ लोग बुरी तरह प्रभावित हुए. अब आप सोच रहे होंगे कि नोटबंदी में लगभग सारा पैसा वापस आने पर ये लोग सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएंगे.

लेकिन देश में इस फ़ैसले के ग़लत साबित होने पर गुस्सा क्यों नहीं दिख रहा?

एक कारण यह भी है कि बहुत से लोग के लिए पैसों की बड़ी गिनती और डीटेल को समझना मुश्किल है. सीधे तौर पर कहें तो बेकार.

इस बारे में जानने और समझने के लिए आपको भारत में कई न्यूज वेबसाइट देखनी पड़ेंगी. शायद मुख्य ख़बरों में इसे मुश्किल से जगह मिली हो.

बड़े टीवी चैनलों और देश के बड़े अख़बारों ने भी ख़बर को तवज्जो नहीं दी.

दूसरा बड़ा कारण यह है कि इस फ़ैसले को अमीरों का खजाना खाली करने वाला बताकर मोदी सरकार ने ग़रीबों के बीच पैठ बनाने की कोशिश की.

भारत के स्वतंत्रता दिवस के मौके से क़रीब दो सप्ताह पहले लाल किले से प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, ”जो लोग ग़रीबों को धोखा देकर भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, वे चैन से सो नहीं सकते.”

उन्होंने आगे कहा, ”नोटबंदी को धन्यवाद कहिए. देश में किसी को भी भ्रष्टाचार करने की छूट नहीं है. हर व्यक्ति जवाबदेह है.”


सरकार ने खेला दूसरा दांव

भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़े भले ही दिखाएं कि इस पॉलिसी से वो हासिल नहीं हुआ जिसकी उम्मीद थी लेकिन असमानता से भरे इस देश में मोदी का संदेश लोगों में असर कर गया.

इसकी एक वजह यह भी है कि सरकार को जैसे ही पता चला कि उनकी पॉलिसी उनकी योजना के मुताबिक़ काम नहीं कर रही उन्होंने इसके फ़ायदे दूसरी तरह गिनाने शुरू कर दिए.

शुरुआत में नोटबंदी को ”काला धन” बाहर निकालने के लिए उठाया गया क़दम बताया गया.

8 नवंबर 2016 को नोटबंदी की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, ”वो ऐतिहासिक समय आ गया है जब देश के विकास के लिए कड़े और निर्णायक फ़ैसले लेने की ज़रूरत है.”

उन्होंने आगे कहा, ”सालों तक इस देश के लोगों ने महसूस किया कि भ्रष्टाचार, काला धन और आतंकवाद वो नासूर बन गए हैं जो देश के विकास की दौड़ में पीछे कर रहे हैं. ”

लेकिन इस घोषणा को लागू करने के कुछ ही सप्ताह में यह पता चल गया कि सरकार ने जितना सोचा था, उससे कहीं ज़्यादा पैसा वापस आ रहा है.

इसलिए तुरंत सरकार ने नया आइडिया आजमाया और लोगों को नकद लेन-देन कम करके देश को ”डिजिटल इकोनॉमी” में मदद करने को कहा.

नए साल के मौके पर मोदी ने कहा, ”भारत में अब हम डिजिटल ट्रांजेक्शन के प्रति लोगों का बढ़ता रुझान देख सकते हैं. ज़्यादा से ज़्यादा लोग डिजिटल ट्रांजेक्शन अपना रहे हैं.”

वजहें

उस वक़्त दिलचस्प ढंग से भारत में डिजिटल ट्रांजेक्शन बढ़ा लेकिन, उसी वक़्त इंटरनेशनल मॉनेटरी फ़ंड ने भारत की अनुमानित आर्थिक विकास दर एक फ़ीसदी कम कर दी.

इसके बाद दूसरा उद्देश्य जो सामने आया वो भारत में टैक्स चोरी को रोकने के लिए प्रयास किए जाने का था क्योंकि भारत में ज़्यादातर बिजनेस नकद भुगतान से हो रहे हैं जिससे टैक्स चोरी करना आसान है और बड़ी संख्या में भारतीय ये करते हैं.

बीते साल जारी किए गए आंकड़ों से पता चला कि साल 2013 में देश में महज एक फ़ीसदी लोगों ने टैक्स भरा.

इस क्षेत्र में सरकार की योजना असल में कामयाब रही है.

प्रधानमंत्री मोदी के मुताबिक़, इस साल 1 अप्रैल से 5 अगस्त के बीच 56 लाख से ज़्यादा लोगों ने इनकम टैक्स रिटर्न भरा. पिछले साल यह आंकड़ा इतने ही समय में सिर्फ 22 लाख था.

राजनीतिक माहौल और उदासीनता भी बड़े कारण हैं कि इस योजना के फ़ेल होने पर भारतीयों में गुस्सा नहीं है.

सच ये है कि नौ महीने बीत चुके हैं और नोटबंदी की वजह से पैदा हुई मुश्किलों का दौर ख़त्म हो चुका है. भारत जैसे ग़रीब देश में लोगों के पास सरकार की नीतियों की नाकामी के बारे में सोचने से ज़्यादा दूसरे महत्वपूर्ण मुद्दे हैं.

 

Read More- BBC Hindi