मोदी सरकार का GST कानून ले डूबा देश के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को, लटक सकते हैं ताले

लखनऊ : जीएसटी लागू होने के बाद समाप्त किये गए वॉटर सेस एक्ट 1977 के चलते देश के राज्यों में प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों पर संकट के बादल मंडराते दिख रहे हैं. दरअसल साल 1977 में बने वॉटर सेस एक्ट से ही प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों की आमदनी होती थी. बताया जाता है कि इस आमदनी की धनराशि को पर्यावरण मंत्रालय भेजा जाता है, जहां से कुल राशि का 80 फीसद बोर्ड के संचालन जिसमें वायु, जल व ध्वनि प्रदूषण की नियमित मॉनीटरिंग अलावा वेतन व अवस्थापना संबंधित अन्य खर्चे किए जाते हैं. लेकिन GST लागू किये जाने के बाद से पूर्व में बने एक्ट को ही समाप्त कर दिया गया है.

दर्जन भर से अधिक सेस समाप्त में वॉटर सेस एक्ट भी शामिल

जिसके चलते देश के राज्यों में चल रहे प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों का अस्तित्व ही खत्म हो गया है. सूत्रों के मुताबिक गुड्स एंड सर्विस टैक्स (जीएसटी) लागू होने के बाद जहां एक तरफ उद्योगों, विकास प्राधिकरणों व लोकल बॉडीज को पानी की लूट की खुली छूट मिल गई है, वहीं दूसरी तरफ पानी के इस्तेमाल की निगरानी करने वाले राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अस्तित्व पर भी सवाल खड़े हो गए हैं.इसकी वजह यह है कि वॉटर सेस एक्ट 1977 को जीएसटी लागू होने के बाद समाप्त कर दिया गया है. दरअसल सेस के बहाने इंडस्ट्री, लोकल बॉडी व विकास प्राधिकरण कितना भूजल इस्तेमाल कर रहे हैं इसकी निगरानी तो होती ही थी. साथ ही सेस से प्राप्त होने वाली आय से देश भर के राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का संचालन भी होता था. बताते चलें कि जीएसटी के तहत जो दर्जन भर से अधिक सेस समाप्त किए गए हैं उनमें वॉटर सेस एक्ट भी शामिल है. इस एक्ट को वर्ष 1977 में बनाया गया था. इसका मुख्य उद्देश्य यह था कि पर्यावरण के मुख्य घटक जिसमें भूजल के साथ सतही जल (नदी आदि) के इस्तेमाल पर भी सेस वसूला जाए. इससे इंडस्ट्री, लोकल बॉडी व विकास प्राधिकरण जितना भूजल इस्तेमाल करते थे उसके लिए उन्हें सेस के रूप में निश्चित धनराशि देनी होती थी.

अब भूजल का लेखा -जोखा नहीं रख सकेगा बोर्ड 

इसका एक फायदा यह था कि कौन कितना भूजल प्रयोग कर रहा है. इसका पूरा लेखा-जोखा बोर्ड के पास हर साल एकत्र किया जाता था. चूंकि इस्तेमाल किए जाने वाले पानी पर सेस देना होता था. इसलिए इंडस्ट्री पानी की अपनी खपत को सीमित कर री-साइक्लिंग भी करती थीं. लेकिन जीएसटी के तहत वॉटर सेस समाप्त होने के बाद न तो बोर्ड पानी की खपत का लेखा-जोखा ही रख सकेंगे और न ही इंडस्ट्री पानी किफायत से खर्च करने पर ही ध्यान देगी. और तो और लोकल बॉडीज व विकास प्राधिकरण पहले ही वॉटर सेस का अरबों रुपये दाबे बैठे हैं. ऐसे में पानी की खुली लूट को बढ़ावा मिलेगा. पर्यावरणविद् डॉ शंकर काला बताते हैं कि सरकार ने यदि इसके लिए कोई दूसरा रास्ता जल्द नहीं निकाला तो देशभर के राज्य बोर्डों का बंद होना तो लगभग तय है. इसके साथ ही भूजल जिसकी स्थिति पहले से ही काफी भयावह है और बदतर हो जाएगी.

केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को भेजी गयी चिट्ठी 

उत्तर प्रदेश राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा वर्ष 2016-17 में 41.59 करोड़ की राशि एकत्र की गई थी. बोर्ड के सूत्र बताते हैं कि सेस में इकठ्ठा की गई धनराशि को पर्यावरण मंत्रालय भेजा जाता है जहां से कुल राशि का 80 फीसद बोर्ड के संचालन जिसमें वायु, जल व ध्वनि प्रदूषण की नियमित मॉनीटरिंग अलावा वेतन व अवस्थापना संबंधित अन्य खर्चे किए जाते हैं. फिलहाल वॉटर सेस समाप्त होने के बाद वित्तीय संकट खड़ा हो जाएगा. जिसकी जानकारी केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को भेजी जा चुकी है.

 

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