PM मोदी की फोटो या उनका नाम नहीं दिखा सकते. मास्टर स्ट्रोक प्रोग्राम में. पुण्य प्रसून वाजपेई.

ABP News Prime Time Anchor Puniya Prasun Bajpaye

अपने इस लेख में मास्टरस्ट्रोक कार्यक्रम के एंकर रहे पुण्य प्रसून बाजपेयी उन घटनाक्रमों के बारे में विस्तार से बता रहे हैं जिनके चलते एबीपी न्यूज़ चैनल के प्रबंधन ने मोदी सरकार के आगे घुटने टेक दिए और उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा.

 

क्या ये संभव है कि आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम न लें. आप चाहे तो उनके मंत्रियों का नाम ले लीजिए. सरकार की नीतियों में जो भी गड़बड़ी दिखाना चाहते हैं, दिखा सकते हैं. मंत्रालय के हिसाब से मंत्री का नाम लीजिए, पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ज़िक्र कहीं ना कीजिए.

लेकिन जब प्रधानमंत्री मोदी ख़ुद ही हर योजना का ऐलान करते हैं. हर मंत्रालय के कामकाज से ख़ुद को जोड़े हुए हैं और उनके मंत्री भी जब उनका ही नाम लेकर योजना या सरकारी नीतियों का ज़िक्र कर रहे हैं तो आप कैसे मोदी का नाम ही नहीं लेंगे.

अरे छोड़ दीजिए… कुछ दिनों तक देखते हैं क्या होता है. वैसे आप कर ठीक रहे हैं… पर अभी छोड़ दीजिए.

भारत के आनंद बाज़ार पत्रिका समूह के राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल एबीपी न्यूज़ के प्रोपराइटर जो एडिटर-इन-चीफ भी हैं उनके साथ ये संवाद 14 जुलाई को हुआ.

यूं तो इस निर्देश को देने से पहले ख़ासी लंबी बातचीत ख़बरों को दिखाने, उसके असर और चैनल को लेकर बदलती धारणाओं के साथ हो रहे लाभ पर भी हुई.

एडिटर-इन-चीफ ने माना कि ‘मास्टरस्ट्रोक’ प्रोग्राम ने चैनल की साख़ बढ़ा दी है. ख़ुद उनके शब्दों में कहें तो, ‘मास्टरस्ट्रोक में जिस तरह की रिसर्च होती है… जिस तरह ख़बरों को लेकर ग्राउंड ज़ीरो से रिपोर्टिंग होती है. रिपोर्ट के ज़रिये सरकार की नीतियों का पूरा खाका रखा जाता है. ग्राफिक्स और स्क्रिप्ट जिस तरह लिखी जाती है, वह चैनल के इतिहास में पहली बार उन्होंने भी देखा.’

तो चैनल के बदलते स्वरूप या ख़बरों को परोसने के अंदाज़ ने प्रोपराइटर व एडिटर-इन-चीफ को उत्साहित तो किया पर ख़बरों को दिखाने-बताने के अंदाज़ की तारीफ़ करते हुए भी लगातार वह ये कह भी रहे थे और बता भी रहे थे कि क्या सब कुछ ऐसे ही चलता रहे और प्रधानमंत्री मोदी का नाम न हो तो कैसा रहेगा?

ख़ैर, एक लंबी चर्चा के बाद सामने निर्देश यही आया कि प्रधानमंत्री मोदी का नाम अब चैनल की स्क्रीन पर लेना ही नहीं है.

तमाम राजनीतिक ख़बरों के बीच या कहें सरकार की हर योजना के मद्देनज़र ये बेहद मुश्किल काम था कि भारत की बेरोज़गारी का ज़िक्र करते हुए कोई रिपोर्ट तैयार की जा रही हो और उसमें सरकार के रोज़गार पैदा करने के दावे जो कौशल विकास योजना या मुद्रा योजना से जुड़ी हो, उन योजनाओं की ज़मीनी हक़ीक़त को बताने के बावजूद ये न लिख पाएं कि प्रधानमंत्री मोदी ने योजनाओं की सफलता को लेकर जो दावा किया वह है क्या?

यानी एक तरफ़ प्रधानमंत्री कहते हैं कि कौशल विकास योजना के ज़रिये जो स्किल डेवलपमेंट शुरू किया गया उसमें 2022 तक का टारगेट तो 40 करोड़ युवाओं को ट्रेनिंग देने का रखा गया है, पर 2018 में इनकी तादाद दो करोड़ भी छू नहीं पायी है.

और ग्राउंड रिपोर्ट बताती है कि जितनी जगहों पर कौशल विकास योजना के तहत केंद्र खोले गए उनमें से हर 10 में से 8 केंद्र पर कुछ नहीं होता. तो ग्राउंड रिपोर्ट दिखाते हुए क्यों प्रधानमंत्री का नाम आना ही नहीं चाहिए?

तो सवाल था मास्टरस्ट्रोक की पूरी टीम की कलम पर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शब्द ग़ायब हो जाना चाहिए पर अगला सवाल तो ये भी था कि मामला किसी अख़बार का नहीं बल्कि न्यूज़ चैनल का था.

यानी स्क्रिप्ट लिखते वक़्त कलम चाहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न लिखे लेकिन जब सरकार का मतलब ही बीते चार बरस में सिर्फ़ नरेंद्र मोदी है तो फिर सरकार का ज़िक्र करते हुए एडिटिंग मशीन ही नहीं बल्कि लाइब्ररी में भी सिर्फ़ प्रधानमंत्री मोदी के ही वीडियो होंगे.

और 26 मई 2014 से लेकर 26 जुलाई 2018 तक किसी भी एडिटिंग मशीन पर मोदी सरकार ही नहीं बल्कि मोदी सरकार की किसी भी योजना को लिखते ही जो वीडियो या तस्वीरों का कच्चा-चिट्ठा उभरता उसमें 80 फीसदी प्रधानमंत्री मोदी ही थे.

यानी किसी भी एडिटर के सामने जो तस्वीर स्क्रिप्ट के अनुरूप लगाने की ज़रूरत होती उसमें बिना मोदी के कोई वीडियो या कोई तस्वीर उभरती ही नहीं.

और हर मिनट जब काम एडिटर कर रहा है तो उसके सामने स्क्रिप्ट में लिखे, मौजूदा सरकार शब्द आते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ही तस्वीर उभरती और आॅन एयर ‘मास्टरस्ट्रोक’ में चाहे कहीं भी प्रधानमंत्री मोदी शब्द बोला-सुना ना जा रहा हो पर स्क्रीन पर प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर आ ही जाती.

यानी हम कैसे प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर दिखाए बिना कोई भी रिपोर्ट दिखा सकते हैं. उस पर हमारा सवाल था कि मोदी सरकार ने चार बरस के कार्यकाल के दौरान 106 योजनाओं का ऐलान किया है. संयोग से हर योजना का ऐलान ख़ुद प्रधानमंत्री ने ही किया है.

हर योजना के प्रचार-प्रसार की ज़िम्मेदारी चाहे अलग-अलग मंत्रालय पर हो, अलग-अलग मंत्री पर हो, लेकिन जब हर योजना के प्रचार-प्रसार में हर तरफ़ से ज़िक्र प्रधानमंत्री मोदी का ही हो रहा है तो योजना की सफलता-असफलता पर ग्राउंड रिपोर्ट में भी ज़िक्र प्रधानमंत्री का रिपोर्टर-एंकर भले ही न करे लेकिन योजना से प्रभावित लोगों की ज़ुबां पर नाम तो प्रधानमंत्री मोदी का ही होगा और लगातार है भी.

एबीपी न्यूज़ के मैनेजिंग एडिटर मिलिंद खांडेकर (बाएं) और पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी )(photo credit:twitter)

 

तो सरकार के सामने ये संकट भी उभरा कि जब उनके दावों को परखते हुए उनके ख़िलाफ़ हो रही रिपोर्ट को भी जनता पसंद करने लगी है और चैनल की टीआरपी भी बढ़ रही है तो फिर आने वाले वक़्त में दूसरे चैनल क्या करेंगे?

क्योंकि भारत में न्यूज़ चैनलों के बिज़नेस का सबसे बड़ा आधार विज्ञापन है और विज्ञापन को मापने के लिए संस्था बार्क (ब्रॉडकास्ट आॅडिएंस रिसर्च काउंसिल इंडिया) की टीआरपी रिपोर्ट है. और अगर टीआरपी ये दिखलाने लगे कि मोदी सरकार की सफलता को ख़ारिज करती रिपोर्ट जनता पसंद कर रही है तो फिर वह न्यूज़ चैनल जो मोदी सरकार के गुणगान में खोये हुए हैं उनके सामने साख़ और बिज़नेस यानी विज्ञापन दोनों का संकट होगा.

तो बेहद समझदारी के साथ चैनल पर दबाव बढ़ाने के लिए दो कदम सत्ताधारी बीजेपी के तरफ़ से उठे. पहला, देशभर में एबीपी न्यूज़ का बायकट हुआ और दूसरा, एबीपी का जो भी सालाना कार्यक्रम होता है जिससे चैनल की साख़ भी बढ़ती है और विज्ञापन के ज़रिये कमाई भी होती है. मसलन एबीपी न्यूज़ चैनल के ‘शिखर सम्मेलन’ कार्यक्रम में सत्ता और विपक्ष के नेता-मंत्री पहुंचते और जनता के सवालों का जवाब देते तो उस कार्यक्रम से बीजेपी और मोदी सरकार दोनों ने हाथ पीछे कर लिए. यानी कार्यक्रम में कोई मंत्री नहीं जाएगा.

 

ज़ाहिर है जब सत्ता ही नहीं होगी तो सिर्फ़ विपक्ष के आसरे कोई कार्यक्रम कैसे हो सकता है. यानी हर न्यूज़ चैनल को साफ़ संदेश दे दिया गया कि विरोध करेंगे तो चैनल के बिज़नेस पर प्रभाव पड़ेगा.

यानी चाहे-अनचाहे मोदी सरकार ने साफ़ संकेत दिए कि सत्ता अपने आप में बिज़नेस है और चैनल भी बिना बिज़नेस ज़्यादा चल नहीं पाएगा. पर पहली बार एबीपी न्यूज़ चैनल पर असर डालने के लिए या कहें कई सारे चैनल मोदी सरकार के गुणगान को छोड़कर ग्राउंड ज़ीरो से ख़बरें दिखाने की दिशा में बढ़ न जाएं. उसके लिए शायद दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र का मित्र बनकर लोकतंत्र का ही गला घोंटने की कार्यवाही सत्ता ने शुरू की.

 

यानी इमरजेंसी थी तब मीडिया को एहसास था कि संवैधानिक अधिकार समाप्त हैं पर यहां तो लोकतंत्र का राग है और 20 जून को प्रधानमंत्री मोदी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये किसान लाभार्थियों से बात भी की.

उस बातचीत में सबसे आगे छत्तीसगढ़ के कांकेर ज़िले के कन्हारपुरी गांव में रहने वाली चंद्रमणि कौशिक थीं. उनसे जब प्रधानमंत्री ने कमाई के बारे में पूछा तो बेहद सरल तरीके से चंद्रमणि ने बताया कि उसकी आय कैसे दोगुनी हो गई. आय दोगुनी हो जाने की बात सुनकर प्रधानमंत्री खुश हो गए, खिलखिलाने लगे, क्योंकि किसानों की आय दोगुनी होने का लक्ष्य प्रधानमंत्री मोदी ने साल 2022 में रखा है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और छत्तीसगढ़ की महिला किसान चंद्रमणि कौशिक. Photo: Youtube/PTI

 

 

 

 

 

 

पर लाइव टेलीकास्ट में कोई किसान कहे कि उसकी आय दोगुनी हो गई तो प्रधानमंत्री का खुश होना तो बनता है. पर रिपोर्टर-संपादक के दृष्टिकोण से हमें ये सच पचा नहीं क्योंकि छत्तीसगढ़ यूं भी देश के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक है, फिर कांकेर ज़िला, जिसके बारे में सरकारी रिपोर्ट ही कहती है कि जो अब भी कांकेर के बारे में सरकारी वेबसाइट पर दर्ज है कि ये दुनिया के सबसे पिछड़े इलाके यानी अफ्रीका या अफगानिस्तान की तरह है.

ऐसे में यहां की कोई महिला किसान आय दोगुनी होने की बात कह रही है तो रिपोर्टर को ख़ासकर इसी रिपोर्ट के लिए वहां भेजा गया. 14 दिन बाद 6 जुलाई को जब ये रिपोर्ट दिखायी गई कि कैसे महिला को दिल्ली से गए अधिकारियों ने ट्रेनिंग दी कि उसे प्रधानमंत्री के सामने क्या बोलना है, कैसे बोलना है और कैसे आय दोगुनी होने की बात कहनी है.

इस रिपोर्ट को दिखाये जाने के बाद छत्तीसगढ़ में ही ये सवाल होने लगे कि कैसे चुनाव जीतने के लिए छत्तीसगढ़ की महिला को ट्रेनिंग दी गई. (छत्तीसगढ़ में पांच महीने बाद विधानसभा चुनाव है) यानी इस रिपोर्ट ने तीन सवालों को जन्म दे दिया.

पहला, क्या अधिकारी प्रधानमंत्री को खुश करने के लिए ये सब करते हैं. दूसरा, क्या प्रधानमंत्री चाहते हैं कि सिर्फ़ उनकी वाहवाही हो तो झूठ बोलने की ट्रेनिंग दी जाती है. तीसरा, क्या प्रचार-प्रसार का यही तंत्र ही है जो चुनाव जिता सकता है.

हो जो भी पर इस रिपोर्ट से आहत मोदी सरकार ने एबीपी न्यूज़ चैनल पर सीधा हमला ये कहकर शुरू किया कि जान-बूझकर ग़लत और झूठी रिपोर्ट दिखायी गई. और बाकायदा सूचना एवं प्रसारण मंत्री समेत तीन केंद्रीय मंत्रियों ने एक सरीखे ट्वीट किए और चैनल की साख़ पर ही सवाल उठा दिए. ज़ाहिर है ये दबाव था. सब समझ रहे थे.

ऐसे में तथ्यों के साथ दोबारा रिपोर्ट फाइल करने के लिए जब रिपोर्टर ज्ञानेंद्र तिवारी को भेजा गया तो गांव का नज़ारा ही कुछ अलग हो गया. मसलन गांव में पुलिस पहुंच चुकी थी. राज्य सरकार के बड़े अधिकारी इस भरोसे के साथ भेजे गए थे कि रिपोर्टर दोबारा उस महिला तक पहुंच न सके.

पर रिपोर्टर की सक्रियता और भ्रष्टाचार को छिपाने पहुंचे अधिकारी या पुलिसकर्मियों में इतना नैतिक बल न था या वह इतने अनुशासन में रहने वाले नहीं थे कि रात तक डटे रहते, तो दिन के उजाले में खानापूर्ति कर वे अधिकारी लौट आए.

शाम ढलने से पहले ही गांव के लोगों ने और दोगुनी आय कहने वाली महिला समेत उनके साथ काम करने वाली 12 महिलाओं के समूह ने चुप्पी तोड़कर सच बता दिया कि हालत तो और खस्ता हो गई है.


9 जुलाई को इस रिपोर्ट के ‘सच’ शीर्षक के प्रसारण के बाद सत्ता-सरकार की खामोशी ने संकेत तो दिए कि वह कुछ करेगी और उसी रात सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन काम करने वाले न्यूज़ चैनल मॉनिटरिंग की टीम में से एक शख़्स ने फोन से जानकारी दी कि आपके मास्टरस्ट्रोक चलने के बाद से सरकार में हड़कंप मचा हुआ है.

बाकायदा एडीजी को सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने हड़काया है कि क्या आपको अंदेशा नहीं था कि एबीपी हमारे ट्वीट के बाद भी रिपोर्ट फाइल कर देता है. अगर ऐसा हो सकता है तो हम पहले ही नोटिस भेज देते जिससे रिपोर्ट के प्रसारण से पहले उन्हें हमें दिखाना पड़ता.

ज़ाहिर है जब ये सारी जानकारी नौ जुलाई को सरकारी मॉनिटरिंग करने वाले सीनियर मॉनिटरिंग का पद संभाले शख़्स ने दी तो मुझे पूछना पड़ा कि क्या आपको नौकरी का ख़तरा नहीं है, जो आप हमें सारी जानकरी दे रहे हैं.

तो उस शख्स ने साफ़ तौर पर कहा कि 200 लोगों की टीम है. जिसकी भर्ती ब्रॉडकास्ट इंजीनियरिंग कॉरपोरेशन इंडिया लिमिटेड करती है. छह महीने के कॉन्ट्रैक्ट पर रखती है चाहे आपको कितने भी बरस काम करते हुए हो. छुट्टी की कोई सुविधा है नहीं. मॉनिटरिंग करने वालों को 28,635 रुपये मिलते हैं तो सीनियर मॉनिटरिंग करने वाले को 37,350 रुपये और कंटेट पर नज़र रखने वालों को 49,500 रुपये मिलते हैं. इतने वेतन की नौकरी जाए या रहे फ़र्क़ क्या पड़ता है.

पर सच तो यही है कि प्राइम टाइम के बुलेटिन पर नज़र रखने वालों को यही रिपोर्ट तैयार करनी होती है कितना वक़्त आपने प्रधानमंत्री मोदी को दिखाया. जो सबसे ज़्यादा दिखाता है उसे सबसे ज़्यादा अच्छा माना जाता है.

हम मास्टरस्ट्रोक में प्रधानमंत्री मोदी को तो ख़ूब दिखाते हैं इस पर लगभग हंसते हुए उस शख़्स ने कहा आपके कंटेंट पर अलग से एक रिपोर्ट तैयार होती है और आज जो आपने दिखाया है उसके बाद तो कुछ भी हो सकता है. बस सचेत रहिएगा.

यह कहकर उसने तो फोन काट दिया तो मैं भी इस बारे में सोचने लगा. इसकी चर्चा चैनल के भीतर हुई भी पर ये किसी ने नहीं सोचा था कि हमला तीन स्तर पर होगा और ऐसा हमला होगा कि लोकतंत्र टुकुर-टुकुर देखता रह जाएगा क्योंकि लोकतंत्र के नाम पर ही लोकतंत्र का गला घोटा जाएगा.

अगले ही दिन से जैसे ही रात के नौ बजे एबीपी न्यूज़ चैनल का सैटेलाइट लिंक अटकने लगा और नौ बजे से लेकर रात दस बजे तक कुछ इस तरह से सैटेलाइट की डिस्टरबेंस रही कि कोई भी मास्टरस्ट्रोक देख ही न पाए या देखने वाला चैनल बदल ले और दस बजते ही चैनल फिर ठीक हो जाता.

ज़ाहिर है ये चैनल चलाने वालों के लिए किसी झटके से कम नहीं था. ऐसे में चैनल के प्रोपराइटर व एडिटर-इन-चीफ ने तमाम टेक्नीशियंस को लगाया कि ये क्यों हो रहा है. पर सेकेंड भर के लिए किसी टेलीपोर्ट से एबीपी सैटेलाइट लिंक पर फायर होता और जब तक एबीपी के टेक्नीशियन एबीपी का टेलीपोर्ट बंद कर पाते तब तक पता नहीं कहां से फायर हो रहा है तब तक उस टेलीपोर्ट के मूवमेंट होते और वह फिर चंद मिनट में सेकेंड भर के लिए दोबारा टेलीपोर्ट से फायर करता.

यानी औसतन 30 से 40 बार एबीपी के सैटेलाइट लिंक पर ही फायर कर डिस्टरबेंस पैदा की जाती और तीसरे दिन सहमति यही बनी कि दर्शकों को जानकारी दे दी जाए.

19 जुलाई को सुबह से ही चैनल पर ज़रूरी सूचना कहकर चलाना शुरू किया गया, ‘पिछले कुछ दिनों से आपने हमारे प्राइम टाइम प्रसारण के दौरान सिग्नल को लेकर कुछ रुकावटें देखी होंगी. हम अचानक आई इन दिक्कतों का पता लगा रहे हैं और उन्हें दूर करने की कोशिश में लगे हैं. तब तक आप एबीपी न्यूज़ से जुड़े रहें.’

 

 

ये सूचना प्रबंधन के मशविरे से आॅन एयर हुई पर इसे आॅन एयर करने के दो घंटे बाद ही यानी सुबह 11 बजते-बजते हटा लिया गया. हटाने का निर्णय भी प्रबंधन का ही रहा. यानी दबाव सिर्फ़ ये नहीं कि चैनल डिस्टर्ब होगा बल्कि इसकी जानकारी भी बाहर नहीं जानी चाहिए यानी मैनेजमेंट कहीं साथ खड़ा न हो.

और इसी के समानांतर कुछ विज्ञापनदाताओं ने विज्ञापन हटा लिए या कहें रोक लिए. मसलन सबसे बड़ा विज्ञापनदाता जो विदेशी ताकतों से स्वदेशी ब्रांड के नाम पर लड़ता है और अपने सामान को बेचता है उसका विज्ञापन झटके में चैनल के स्क्रीन से गायब हो गया.

 

फिर अगली जानकारी ये भी आने लगी कि विज्ञापनदाताओं को भी अदृश्य शक्तियां धमका रही हैं कि वे विज्ञापन देना बंद कर दें. यानी लगातार 15 दिन तक सैटेलाइट लिंक में दख़ल और सैटेलाइट लिंक में डिस्टरबेंस का मतलब सिर्फ़ एबीपी का राष्ट्रीय हिंदी न्यूज़ चैनल भर ही नहीं बल्कि चार क्षेत्रीय भाषा के चैनल भी डिस्टर्ब होने लगे यानी रात नौ से दस बजे कोई आपका चैनल न देख पाए तो मतलब है जिस वक़्त सबसे ज़्यादा लोग देखते है उसी वक़्त आपको कोई नहीं देखेगा.

यानी टीआरपी कम होगी ही, यानी मोदी सरकार के गुणगान करने वाले चैनलों के लिए राहत कि अगर वह सत्तानुकूल ख़बरों में खोए हुए हैं तो उनकी टीआरपी बनी रहेगी और जनता के लिए सत्ता ये मैसेज दे देगी कि लोग तो मोदी को मोदी के अंदाज़ में सफल देखना चाहते हैं.

 

जो सवाल खड़ा करते हैं उसे जनता देखना ही नहीं चाहती. यानी सूचना एवं प्रसारण मंत्री को भी पता है कि खेल क्या है तभी तो संसद में जवाब देते वक़्त वह टीआरपी का ज़िक्र करने से चुके पर स्क्रीन ब्लैक होने से पहले टीआरपी क्यों बढ़ रही थी इस पर कुछ नहीं बोले.

ख़ैर ये पूरी प्रक्रिया है जो चलती रही और इस दौर में कई बार ये सवाल भी उठे कि एबीपी को ये तमाम मुद्दे उठाने चाहिए. मास्टरस्ट्रोक के वक़्त अगर सैटेलाइट लिंक ख़राब किया जाता है तो कार्यक्रम को सुबह या रात में ही रिपीट टेलीकास्ट करना चाहिए.

पर हर रास्ता उसी दिशा में जा रहा था जहां सत्ता से टकराना है या नहीं और खामोशी हर सवाल का जवाब ख़ुद-ब-खुद दे रही थी. तो पूरी लंबी प्रक्रिया का अंत भी कम दिलचस्प नहीं है क्योंकि एडिटर-इन-चीफ यानी प्रोपराइटर या कहें प्रबंधन जब आपके सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जाए कि बताइए करें क्या?

इन हालातों में आप ख़ुद क्या कर सकते हैं… छुट्टी पर जा सकते हैं… इस्तीफ़ा दे सकते हैं. और कमाल तो ये है कि इस्तीफ़ा देकर निकले नहीं कि पतजंलि का विज्ञापन लौट आया.

मास्टरस्ट्रोक में भी विज्ञापन बढ़ गया. 15 मिनट का विज्ञापन जो घटते-घटते तीन मिनट पर आ गया था वह बढ़कर 20 मिनट हो गया. दो अगस्त को इस्तीफ़ा हुआ और दो अगस्त की रात सैटेलाइट भी संभल गया. और काम करने के दौर में जिस दिन संसद के सेंट्रल हाल में कुछ पत्रकारों के बीच एबीपी चैनल को मज़ा सिखाने की धमकी देते हुए पुण्य प्रसून ख़ुद को क्या समझता है कहा गया.

उससे दो दिन पहले का सच और एक दिन बाद का सच ये भी है कि रांची और पटना में बीजेपी का सोशल मीडिया संभालने वालों को बीजेपी अध्यक्ष निर्देश देकर आए थे कि पुण्य प्रसून को बख्शना नहीं है. सोशल मीडिया से निशाने पर रखे और यही बात जयपुर में भी सोशल मीडिया संभालने वालों को कही गई.

 

पर सत्ता की मुश्किल यह है कि धमकी, पैसे और ताक़त की बदौलत सत्ता से लोग जुड़ तो जाते हैं पर सत्ताधारी के इस अंदाज़ में ख़ुद को ढाल नहीं पाते तो रांची-पटना-जयपुर से बीजेपी के सोशल मीडिया वाले जानकारी देते रहे आपके ख़िलाफ़ अभी और ज़ोर-शोर से हमला होगा.

तो फिर आख़िरी सवाल जब खुले तौर पर सत्ता का खेल हो रहा है तो फिर किस एडिटर गिल्ड को लिखकर दें या किस पत्रकार संगठन से कहें संभल जाओ. सत्तानुकूल होकर मत कहो शिकायत तो करो फिर लड़ेंगे. जैसे एडिटर गिल्ड नहीं बल्कि सचिवालय है और संभालने वाले पत्रकार नहीं सरकारी बाबू हैं.

तो गुहार यही है, लड़ो मत पर दिखायी देते हुए सच को देखते वक़्त आंखों पर पट्टी तो न बांधो.

 

Source: The wire Hindi