चिराग तले अँधेरा – आखिर कब जागोगे साहेब – योगी के गढ़ में बेबस मांओं की दर्द भरी ज़िंदगी

गोरखपुर के 10 नंबर वार्ड का राजेंद्र नगर मोहल्ला सरकारी फ़ाइलों में तो शहरी बस्ती है, लेकिन खुले में शौच करते बच्चों और बजबजाती नालियों वाली यह बसाहट किसी रिफ्यूजी कैंप जैसी लगती है.

इसी मोहल्ले में कूड़ा फेंकने और गोबर के कंडे बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला एक बदबूदार मैदान पार करके हम प्रेमलता देवी के घर पहुँचते हैं.

29 वर्षीय प्रेमलता यहां अपने मजदूर पति और तीन बेटों के साथ रहती हैं. एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एइएस) ने अलग-अलग समय पर उनके तीनों बेटों पर हमला बोला है.

दस साल के बड़े बेटे रितेश और 7 साल के मंझले बेटे पीयूष को अपने दोनों तरफ बिठाते हुए प्रेमलता दो साल के प्रतीक को गोद में लेकर बातचीत के लिए बैठती हैं.

एइएस के हमलों से उनका मंझला बेटा तो बच गया पर बड़ा बेटा रितेश मानसिक और शारीरिक विकलांगता का शिकार हो गया है जबकि छोटे बेटे प्रतीक पर एइएस का कितना असर हुआ है ये उसकी उम्र बढ़ने के साथ पता चलेगा.

इंसेफेलाइटिस से एक-तिहाई बच्चे हो जाते हैं विकलांग

ऐसा अनुमान है कि भारत में इंसेफेलाइटिस से ग्रसित होने वाले कुल बच्चों में लगभग एक-तिहाई जीवन भर के लिए शारीरिक या मानसिक विकलांग हो जाते हैं.

एक अनुमान के मुताबिक़ सिर्फ़ पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही इंसेफेलाइटिस से विकलांग हुए बच्चों की संख्या दस हज़ार है. राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने कई बार उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश देते हुए राज्य में इंसेफेलाइटिस से विकलांग हुए बच्चों का आधिकारिक आंकड़ा जारी कर उनके इलाज और पुनर्वास के उपाय सुनिश्चित करने के लिए कहा है.

लेकिन अभी तक इस मामले में सरकार की तरफ़ से कोई आधिकारिक आंकड़े जारी नहीं किए गए हैं. इंसेफेलाइटिस की मार झेल चुके अपने तीन बेटों के साथ आँगन में बैठी प्रेमलता की उदास आँखें पूर्वी उत्तर प्रदेश की चरमराती हुई स्वास्थ व्यवस्था की गवाही दे रही थीं.

तीनों बेटे हुए इंसेफेलाइटिस का शिकार

अपने बच्चों पर हुए इंसेफेलाइटिस के इन हमलों की कहानी सिलसिलेवार ढंग से शुरू करते हुए सबसे पहले बड़े बेटे रितेश का ज़िक्र करती हैं.

“2013 की सर्दियां शुरू ही हुई थीं. तब रितेश पांच साल के थे. अचानक इनको तीन-चार दिन बुखार रहा और उल्टियां हुईं. हम प्राइवेट में डॉक्टर के पास ले गए तो उन्होंने दवा दे दी. पर बुखार बना रहा. फिर अगले दिन अचानक भोर में इनको झटका आया. आंख-वाँख पलट दिए और बेहोश हो गए”.

डॉक्टर ने कहा कि रितेश को तुरंत मेडिकल (बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज) ले जाएं. मेडिकल में इनको तुरंत इंसेफेलाइटिस वॉर्ड में भर्ती किया गया.

प्रेमलता बताती हैं, “25 दिन बाबू को होश नहीं था. आईसीयू में रहे. फिर जब होश आया तो हम सबको भूल गए. चिड़चिड़ापन आ गया था. जो सामान पाते वही फेंक देते. फिर जब अस्पताल से छुट्टी हुई तो इनका आधा शरीर काम नहीं कर रहा था. गर्दन भी एक तरफ लटकी रहती थी.”

”बड़ी मुश्किल से सालों मालिश करके, इलाज करवाकर, मेहनत और मिन्नतों से थोड़ा ठीक हुए हैं पर अभी भी अपना पैंट खुद नहीं पहन पाते. टॉयलेट में सफ़ाई ख़ुद नहीं कर पाते. स्कूल तो जाते हैं पर कुछ याद नहीं रहता. डॉक्टर ने बोल दिया है कि यह नॉर्मल बच्चों की तरह पढ़ाई नहीं कर पाएंगे.”

प्रेमलता बताती हैं कि उनके मंझले बेटे पीयूष को अभी एक महीना पहले ही एइएस का झटका आया था. “जैसे ही उसका मुँह टेढ़ा हुआ और लार टपकने लगा, हम तुरंत मेडिकल ले गए. आठ दिन बाद छुट्टी हो गया. अभी दवा चल रहा है पर वो ठीक है. छोटे वाले प्रतीक को छह महीने पहले इंसेफेलाइटिस का झटका आया. पहले बुखार आया, फिर उल्टी और थोड़ी ही देर में बच्चे ने आंख पलट दिया. हम लोग मेडिकल ले गए. अभी तो ठीक है पर डॉक्टर ने कहा है कि इंसेफेलाइटिस का पूरा असर क्या हुआ है, बच्चे पर यह तो बड़ा होने पर ही पता चलेगा.”

इंसेफेलाइटिस से विकलांग होने वाले बच्चों में संपूर्ण शारीरिक और मानसिक अपंगता के साथ-साथ आंशिक विकलांगता के मामले भी सामने आते हैं. इनमें दृष्टि दोष, भाषा दोष, हाथ-पैरों में टेढ़ापन, अनियंत्रित व्यवहार, अनियंत्रित शौच, हथेलियों और पंजों का निष्क्रिय होना जैसे लक्षण शामिल हैं. किसी भी तरह के संस्थागत समर्थन और चिकित्सकीय सहयोग के अभाव में इन बच्चों का भविष्य अंधकारमय ही रहा है.

उत्तर प्रदेश सरकार ने इंसेफेलाइटिस के कारण विकलांग हुए बच्चों को एक लाख रूपये की सहायता राशि देने की घोषणा तो की है लेकिन इसके तहत प्रेमलता को कोई मुआवजा नहीं मिला है.