ब्रिक्स बैठक: भारत पूरा मंच चीन के हवाले न करे

अगर भारत चाहता है कि ब्रिक्स की बैठक सिर्फ उम्मीद के वाहकों का महज रस्मी समागम बन कर न रह जाये तो उसे इस बड़े मंच को पूरी तरह मेजबान चीन के हवाले नहीं कर देना चाहिए.

शियामेन में हो रहा ब्रिक्स शिखर सम्मेलन चीन के लिए फिर एक ऐसा मौका है जिसके जरिये वह अपनी अहमियत और शान ओ शौकत दिख सकता है, घरेलू मोर्चे पर भी और पूरी दुनिया को भी. और वह भी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 19वीं कांग्रेस से ठीक पहले.

नाजुक मुद्दों को इस बैठक के एजेंडे से बाहर रखा गया है क्योंकि चीन अपने राजनीतिक नेतृत्व में होने वाले अहम फेरबदल से पहले किसी भी तरह का झमेला नहीं चाहता. इसकी बजाय, सदस्य देश शायद आम सहमति वाले विषयों पर ध्यान केंद्रित करेंगे जिनमें मुक्त व्यापार, जलवायु परिवर्तन और साइबर सिक्योरिटी शामिल हैं. डिजिटाइज्ड अर्थव्यवस्था की चुनौतियां भी लगातार एजेंडे पर बनी हुई हैं जो पिछले साल ब्रिक्स अध्यक्ष के तौर भारत के कार्यकाल का मुख्य मुद्दा था.

हालांकि बड़े मंच और एकता के इस प्रदर्शन के जरिए भी इस तथ्य को नहीं छिपाया जा सकता है कि चीन ब्रिक्स संगठन के बुनियादी विचार से अब बहुत दूर चला गया है. अन्य चीजों के अलावा वह अपनी खुद की ‘वेल्ट और रोड पहल’ को आगे बढ़ा रहा है और अपने प्रभाव का विस्तार करना चाहता है.

उम्मीद से निराशा की तरफ

सच बात तो यह है कि ब्रिक्स को लेकर शुरू में जो उम्मीदें पैदा हुई थीं, अब वे लगभग खत्म हो रही हैं. सदस्य देशों में सरपट रफ्तार से होती आर्थिक वृद्धि अब अतीत की बात लगती है.

इसके पांचों सदस्यों ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका को कभी उभरती आर्थिक महाशक्तियों के तौर पर देखा जा रहा था. ऐसा लगा था कि बस कुछ ही समय में वे मुश्किल हालात का सामना कर रहीं पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं को पीछे छोड़ देंगे.  लेकिन ब्रिक्स को लेकर उम्मीदें का ज्वार अब ढल चुका है.

ब्रिक्स की समूची जीडीपी का दो तिहाई हिस्सा चीनी अर्थव्यवस्था पर टिका है. उसकी तेज रफ्तार आर्थिक तरक्की भी अपनी लय खो रही है. दो अंकों वाली आर्थिक वृद्धि को हासिल करना अब उसके लिए सपना है.  2016 में चीन की जीडीपी सिर्फ 6.7 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ी. 2018 में चीनी अर्थव्यवस्था की आर्थिक वृद्धि दर 6 प्रतिशत रहने का अनुमान है.

पिछले साल ब्रिक्स देशों की बैठक गोवा में हुई थी

इस ‘नियंत्रित गिरावट’ को देखते हुए चीन अपनी अर्थव्यवस्था को नये सिरे से व्यवस्थित करना चाहता है. निर्यात और सस्ते उत्पादों की बजाय अब चीन अपनी अर्थव्यवस्था को घरेलू मांग और सेवाओं के दम पर बढ़ाना चाहता है.

हालांकि यह अभी तक एक जोखिम भरा काम ही साबित हुआ है. भारी उद्योग में अत्यधिक क्षमताओं, रियल इस्टेट में सट्टेबाजी में तेजी और बेहताशा कॉरपोरेट कर्ज के कारण चीन का विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से घट रहा है.

रूस की हालत तो और खराब दिखती है. तेल के दामों में कमी और यूक्रेन विवाद के चलते पश्चिमी देशों की तरफ से लगाये गये प्रतिबंधों के कारण रूस की अर्थव्यवस्था को बहुत नुकसान उठाना पड़ा है. इसकी वजह से रूबल के मूल्य में भी गिरावट आयी है और मुद्रास्फीति संबंधी दबाव भी बढ़ा है. ऐसे में, राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को सरकारी खजाना में पैसा डालने के लिए सरकारी संपत्तियों को बेचने और उनका निजीकरण करने के लिए मजबूर होना पड़ा.

Source:dw