70 लाख नौकरियों का दावा मोदी सरकार जिस अध्ययन के आधार पर करती है वह उसने खुद ही करवाया था!

बीती एक फरवरी को बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने रोजगार के मोर्चे पर मोदी सरकार को घेरने वालों को जवाब देने की कोशिश की. यह कोशिश उन्होंने एक रिपोर्ट के आंकड़ों का हवाला देकर की. आईआईएम बेंगलुरु के प्रोफेसर पुलक घोष और एसबीआई के मुख्य अर्थशास्त्री सौम्य कांति घोष की इस रिपोर्ट में 2017-18 में 70 लाख नौकरियां पैदा होने की बात कही गई है.

लेकिन बिजनेस स्टैंडर्ड की एक रिपोर्ट बताती है कि जिस अध्ययन के आधार पर यह रिपोर्ट बनाई गई थी उसे खुद सरकार ने ही करवाया था. इसके मुताबिक प्रधानमंत्री कार्यालय ने बीते अक्टूबर में नीति आयोग से कहा था कि वह फौरन रोजगार सृजन से जुड़े कुछ आंकड़े जुटाए ताकि ‘जल्दी से जल्दी इस मोर्चे पर इच्छित रुझानों तक पहुंचा जा सके.’

अखबार के मुताबिक नीति आयोग ने यह काम पुलक घोष और सौम्य कांति घोष को सौंपा. अध्ययन का नाम था टुवार्ड्स अ पेरोल रिपोर्टिंग इन इंडिया. आयोग ने कर्मचारी भविष्य निधि यानी ईपीएएफ के सदस्य आठ करोड़ खाताधारकों से जुड़ी जानकारियां जुटाने में इन लेखकों की मदद भी की. चूंकि इस तरह का डेटा सार्वजनिक नहीं होता तो आयोग ने खासतौर पर इसे हैदराबाद में स्थित कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) नेशनल डेटा सेंटर से मंगवाया. इसी डेटा का दोनों अर्थशास्त्रियों ने एक महीने तक अध्ययन किया और 2017-18 में पैदा होने वाली नौकरियों का अनुमान लगाया.

इसी रिपोर्ट के आधार पर मोदी सरकार ने रोजगारविहीन विकास की बात करने वालों पर निशाना साधा था. यह रिपोर्ट सार्वजनिक होने के चार दिन बाद ही 19 जनवरी को एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस रिपोर्ट का हवाला देकर 70 लाख नौकरियां पैदा होने की बात कही. इसके बाद अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री ने भी इसी तरह से यही बात दोहरायी.

रिपोर्ट के मुताबिक सौम्य कांति घोष ने पुष्टि की है कि उन्होंने अपने सहयोगी के साथ मिलकर नीति आयोग के दफ्तर में ही यह अध्ययन किया था. सूत्रों के मुताबिक ईपीएफओ ने पूरा डेटाबेस एक ‘यूआरएल’ के जरिये उन्हें उपलब्ध करवाया था. बताया जा रहा है कि उपलब्ध कराये गए 60 जीबी के इस डेटा में कर्मचारियों के नाम, जन्मतिथि, पैन नंबर, पीएफ योगदान और कारोबारी क्षेत्र जैसी जानकारियां शामिल थीं. यह डेटा जनवरी 2015 से नवंबर 2017 के बीच का बताया जाता है.

बीते महीने जब यह रिपोर्ट सार्वजनिक हुई थी तो आलोचकों ने सवाल उठाए थे कि ईपीएफओ की जानकारियां निजी शोध के लिए देना कितना सही है. अब ईपीएफओ के एक अधिकारी का कहना है कि उन्होंने ये डेटा नीति आयोग को दिया था जो एक सरकारी संस्था है. अखबार से बात करते हुए वे कहते हैं, ‘हमें पता नहीं था कि हमारे डेटा के आधार पर कोई सर्वे चल रहा है.’ उनका यह भी कहना था कि यह डेटा किसी निजी व्यक्ति के साथ साझा नहीं किया जा सकता. इस बारे में अखबार ने ईपीएफओ और नीति आयोग से प्रतिक्रिया मांगी थी, लेकिन उसके मुताबिक उसे अब तक कोई जवाब नहीं मिला है.

हालांकि बीते महीने भी इस अध्ययन और सरकार के दावे पर सवाल उठे थे. आलोचकों का कहना था कि ईपीएफओ में 2017 के दौरान 90 लाख से एक करोड़ के बीच नए सदस्य जुड़े हैं, लेकिन ये नई नौकरियां नहीं हैं. उनके मुताबिक ये वे लोग हैं जिनके नियोक्ताओं ने उन्हें अब तक पीएफ के लाभ और सामाजिक सुरक्षा के दायरे से बाहर रखा हुआ था. इसके बाद बिजनेस स्टैंडर्ड की ही एक रिपोर्ट में केंद्रीय पीएफ कमिश्नर वीपी जॉय के हवाले से कहा गया था कि ईपीएफओ में सदस्यों की बढ़ी संख्या नई नौकरियां पैदा होने का संकेत नहीं है. उनका कहना था, ‘ये वे कर्मचारी हैं जिन्हें इस लाभ से वंचित रखा गया था. ये नई नौकरियां नहीं हैं.’

कुछ समय पहले ईपीएफओ ने उन नियोक्ताओं के लिए एक माफी योजना शुरू की थी जो किसी भी वजह से अपने कर्मचारियों का ईपीएफओ में नामांकन नहीं कर पाए थे. ईपीएफ कानून के मुताबिक अगर किसी भी नियोक्ता ने अपने कर्मचारी का पीएफ अंशदान नहीं जमा कराया है तो उसे आर्थिक दंड के साथ सजा भी हो सकती है. लेकिन इस योजना के तहत ऐसे सभी नियोक्ताओं को राहत देते हुए पेशकश की गई थी कि वे मात्र एक रुपए प्रति वर्ष के सांकेतिक दंड का भुगतान कर अपने कर्मचारियों को ईपीएफ का सदस्य बना सकते हैं. ईपीएफओ की यह योजना जनवरी 2017 में तीन महीने के लिए शुरु की गई थी. मार्च 2017 तक यह खत्म होनी थी, लेकिन बाद में इसे तीन महीने और बढ़ाकर जून 2017 तक कर दिया गया. इस दौरान ईपीएफओ में करीब 13 लाख सदस्य तो अकेले मुंबई से ही जुड़ गए थे.

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