चंद्रशेखर आजाद: अंग्रेज भी खौफ खाते थे आजादी के जिस मतवाले से

दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं आजाद ही रहेंगे’

ये लाइनें चंद्रशेखर आजाद की हैं. भारत मां के इस वीर सपूत ने ये दो लाइन महज लिखीं नहीं, बल्कि इन्हें अपना जीवन बना लिया.

इस युवा क्रांतिकारी ने कसम खाई थी कि वह कभी भी अंग्रेजी हुकूमत के हत्थे नहीं चढ़ेगा और वैसा ही हुआ. आजादी का ऐसा जूनून कि अपना नाम तक ‘आजाद’ रख लिया.

चंद्रशेखर आजाद ने इस धरती पर मात्र 24 बरस बिताए पर कम वक्त में ही उन्होंने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए. उनके और उनके वक्त के अन्य क्रांतिकारियों राम प्रसाद बिस्मिल और अश्फाकुल्ला खान के समूह से अंग्रेज हमेशा खौफ खाया करते थे.

‘आजाद’ बनने से पहले उनका नाम चंद्रशेखर था. उनकी पैदाइश आज के मध्य प्रदेश के भाबरा गांव में 23 जुलाई, 1906 को हुई थी. उनके पिता सीताराम तिवारी और माता जगरानी देवी थी.

संस्कृत का विद्वान बनाना चाहती थी मां

ब्राह्मण परिवार में जन्मे चंद्रशेखर की मां चाहती थी कि उनका बेटा बड़ा होकर संस्कृत का विद्वान बने पर बेटा तो अलग सपने देख रहा था. चंद्रशेखर के दिल में आजादी की आग जल रही थी.

पूरे देश में आजादी की मांग जोर पकड़ रही थी. दक्षिण अफ्रीका से आने के बाद महात्मा गांधी ने देश में अंग्रेजों के अत्याचार के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था. कई जगहों पर सत्याग्रह आंदोलन करने के बाद उन्होंने अपना पहला देशव्यापी आंदोलन शुरू किया. दिसंबर, 1921 में जब बापू ने असहयोग आंदोलन शुरू किया तो हर जगह से लोग उनके साथ जुड़ने लगे. ऐसे में चंद्रशेखर के किशोर मन में भी विद्रोह की चिंगारी जलने लगी. मात्र 15 वर्ष की छोटी उम्र में वह इस आंदोलन से जुड़ गए.

आंदोलन में अपनी भागीदारी के चलते उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. कहा जाता है कि क्रांतिकारी विचारों से लैस चंद्रशेखर को जब मैजिस्ट्रेट के आगे पेश किया गया तो वहां उन्होंने अपना नाम ‘आजाद’ बताया. यही नहीं, उन्होनें कहा कि उनके पिता का नाम ‘स्वतंत्रता’ है और उनका घर ‘जेल’ है. तब से वह चंद्रशेखर आजाद के नाम से बुलाए जाने लगे.

जेल में इस 15 साल के किशोर पर कोड़े बरसाए गए.

असहयोग आंदोलन खत्म हुआ तो उग्र संघर्ष का रास्ता अपनाया

अहिंसा को अपने आंदोलन का आधार बताने वाले बापू ने 1922 में चौरी-चौरा कांड होने के बाद आंदोलन वापस ले लिया. इसके बाद आजाद ने  अहिंसा छोड़ कर उग्र हमलों का रास्ता इख्तियार कर लिया.

रामप्रसाद बिस्मिल के क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन (एचआरए) साथ मिलकर उन्होंने नए तरीके से अंग्रेजों का मुकाबला शुरू किया.

बिस्मिल के साथ उनका एक किस्सा बेहद प्रसिद्ध है. आजाद अंग्रेजों की विशाल ताकत से लड़ने के अपने संकल्प को साबित करने के लिए बिस्मिल के सामने जलते दिए के ऊपर अपना हाथ तब तक रखे रहे जब तक चमड़ी ना जल गई.

यहां से उनकी जिंदगी बदल गई. उन्होंने सरकारी खजाने को लूट कर संगठन की क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए धन जुटाना शुरू कर दिया. उनका मानना था कि यह धन दरअसल भारतीयों का ही है जिसे अंग्रेजों ने लूटा है.

वह 1925 में काकोरी ट्रेन लूट, 1926 में वाइसराय के ट्रेन को उड़ाने का प्रयास और 1928 में जेपी सौन्डर्स पर फायरिंग की वारदातों में शामिल रहे.

पहचान बदलकर लक्ष्य के लिए लगे रहे

आजाद ने झांसी को अपनी गतिविधयों का केंद्र बनाया. उन्होंने डेढ़ साल पहचान बदल कर बिताए. वहां वह एक झोपड़ी में रहते थे और आस-पास के बच्चों को पढ़ाते थे. यहीं वह एक जंगल में अन्य क्रांतिकारियों को हथियारों की शिक्षा भी देते थे.

यहां उनकी पहचान अन्य क्रांतिकारियों और कांग्रेस नेताओ के साथ भी बढ़ी.

काकोरी कांड के बाद बिस्मिल और अशफाकुल्ला खान जैसे क्रांतिकारियों को फांसी की सजा हुई जिसके बाद संगठन की जिम्मेदारी आजाद पर आ गई. 1928 में संगठन का नाम बदल कर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन कर दिया गया.

आजाद अंग्रेजों से लोहा लेने की योजनाएं बनाते रहते थे. इसी सिलसिले में वह इलाहबाद के अल्फ्रेड पार्क में प्रसिद्ध क्रांतिकारी सुखदेव के साथ अपने एक अन्य साथी से मिलने वाले थे.

अंतिम सांस तक रहे ‘आजाद’

उस दिन 27 फरवरी, 1931 को क्रांतिकारियों के वहां होने की जानकारी अंग्रेजों को मिल गई. उन्हें चारों तरफ से घेर लिया गया. बचने का कोई रास्ता ना देख उन्होंने पुलिस पर हमला किया ताकि सुखदेव वहां से निकलकर भाग सके. इस क्रम में वह गोलियों से बुरी तरह घायल हो गए. आधे घंटे तक चली लड़ाई के बाद उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा के मुताबिक पिस्तौल की आखिरी गोली खुद को मार ली लेकिन अग्रेजों के गिरफ्त में नहीं आए. उनकी वह खास पिस्तौल आज भी इलाहबाद के म्यूजियम में देखी जा सकती है.

 

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