अलीगढ़ में अंग्रेजी राज के नामों को क्यों गिनवा रहा है दैनिक जागरण?

नरेन्द्र सिंह/ अलीगढ़ 


क्या अब प्रिंट मीडिया के लिए सिर्फ एक ही काम बचा हुआ है कि वह माहौल को सांप्रदायिक बनाने के लिए मुद्दों की टेस्टिंग करे कि कौन सा मुद्दा वह ढूंढे ताकि उससे और अधिक रक्त बह सके और ज्यादा लोग मरें ताकि वह अपने राजनीतिक आकाओं के एजेंडे पर चलते हुए लाशों के ऊपर पैर रखते हुए उस नफरत और खून से सनी हुई पताका को कब्रिस्तान से लेकर शमशान तक की यात्रा करे?

अपने राजनीतिक हित साधने के इस दौर में सत्ता के समर्थन से मीडिया ने जन सरोकार की भावना का सरेआम कत्ल किया है। आज सवाल यह है कि क्या वह सिर्फ राजनीतिक रूप से संवेदनशील मुद्दों को इसलिए चुनेगा ताकि वह चुनाव आने पर वोटों के ध्रुवीकरण में मदद करें? मीडिया के इस भयंकर रूप को समझना हो तो उनके हैडलाइन को समझिये और एकटक देखिये खबरों को प्रस्तुत करने के तरीके को।

कोई भी संवेदनशील समाज नहीं चाहेगा कि उसका मीडिया जिसे लोकतंत्र का स्तम्भ होने का रुतबा हासिल हो वह ऐसा घृणित कार्य करे लेकिन दैनिक जागरण के 18 मई के संस्करण में पेज नम्बर सात पर एक स्टोरी की है संतोष शर्मा ने जिसका शीर्षक है “आजाद भारत में गुलामी के निशान बाकी”। दैनिक जागरण लिखता है कि देश को आजाद हुए 70 साल हो गए लेकिन अलीगढ़ में अंग्रेजों की गुलामी अभी भी शेष है।

क्या अलीगढ़ में शिक्षा, रोजगार, न्याय, स्वास्थ्य, सडक, पानी, क़ानून व्यवस्था, सब कुछ ठीक है? क्या अब कोई मुद्दा नहीं रह गया है सिर्फ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में गेट किसके नाम पर है सड़क किसके नाम पर है या पार्क किसके नाम पर है? क्या यही सब रह गया है?

दरअसल ये एक कला है पत्रकारिता की जिसमें मुद्दों को बहुत छोटे लेवल पर टेस्ट किया जाता है, यदि वह मुद्दा सांप्रदायिक माहौल को तनावपूर्ण बनाने में सफल रहता है तो वह एक तीर की तरह तरकश में रख लिया जाता है जिसे चुनाव के वक्त या मंहगाई के दौर में जब कई सवालों को दफनाने में उसका इस्तेमाल किया जाता है।

इस तरह की रिपोर्टिंग का ख़ास मकसद है कि किसी व्यक्ति या संस्था के बारे में इस तरह की रिपोर्टिंग कर उसे इतना बदनाम करने का ताकि कल को जब उसके अस्तित्व पर कोई हमला हो तब आम जनमानस या तो उसमें सक्रिय भागीदारी करे या मूक सहमति दे।

फिर चाहे वे मदरसे हों या अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, इनको लेकर बनी एक छवि को और पुष्ट करना कि यह विश्वविद्यालय मुस्लिमों का है और मुस्लिम देशद्रोही हैं जिसे जिन्ना प्रकरण ने और मजबूत किया है। ऐसा प्रयोग जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में सफल रहा है।