रूस: क़िस्सा 500 टन सोने के ग़ायब ख़ज़ाने का

ख़ज़ानों के क़िस्से इंसान को सदियों से लुभाते आए हैं. ख़ज़ाने की तलाश, ख़ज़ाने की लूट, ख़ज़ाना छुपा होने के क़िस्से, ख़ज़ाने के मालिकों की दास्तानें हम सदियों से सुनते-सुनाते आए हैं.

ऐसे ही ख़ज़ाने का क़िस्सा, रूस के साइबेरियाई इलाक़े का है. ये इलाक़ा दुनिया की सबसे गहरी झील कही जाने वाली बैकाल झील के पास है.

ये इतना दूर और इतना दुर्गम इलाक़ा है कि यहां तक पहुंचना बेहद मुश्किल है. ये है इर्कुटस्क शहर.

क़िस्सा रूस में कम्युनिस्ट क्रांति के दौर का है. पहले विश्व युद्ध के बाद रूस में बोल्शेविक क्रांति हो गई थी. लेनिन और उनके कमांडर लियोन ट्रॉटस्की ने रूस के बादशाह ज़ार निकोलस द्वितीय की सेनाओ को कई जगह शिकस्त दे दी थी.

लेनिन के कमांडर

ख़ास तौर से रूस के पश्चिमी इलाक़ों में एक बड़े हिस्से पर वामपंथी क्रांतिकारियों का क़ब्ज़ा हो गया था. इसी दौर में ज़ार निकोलस द्वितीय के सलाहकारों ने उन्हें सलाह दी कि वो अपने ख़ज़ाने को राजधानी सेंट पीटर्सबर्ग से पूर्वी इलाक़े में कहीं भेज दें, वरना वो क्रांतिकारियों के हाथ लग जाएंगे.

उस वक़्त अमरीका और फ्रांस के बाद रूस के पास ही सोने का तीसरा बड़ा ज़ख़ीरा था. ज़ार निकोलस की समर्थक व्हाइट फोर्सेज ने क़रीब पांच सौ टन सोना एक ट्रेन में लादकर सेंट पीटर्सबर्ग से पूर्वी शहर कज़ान की तरफ़ रवाना कर दिया. इस बात की ख़बर लेनिन के कमांडर लियोन ट्रॉटस्की को लग गई.

कज़ान शहर

ये ख़ज़ाना जिसके भी हाथ में होता, उसके लिए जीत की राह हमवार हो जानी थी. इसीलिए ट्रॉटस्की कज़ान जा पहुंचा. वहां पर ट्रॉटस्की की सेना ने ज़ार समर्थक व्हाइट फ़ोर्सेज को शिकस्त दे दी. मगर जब वो कज़ान शहर के अंदर दाखिल हुए तो पता चला कि सोना तो वहां नहीं था. उसे और पूरब की तरफ़ रवाना कर दिया गया था.

ट्रॉटस्की ने दूसरी ट्रेन से सोने से लदी गाड़ी का पीछा करना शुरू कर दिया था. उस वक़्त रूस ने इतनी तरक़्क़ी नहीं की थी. ट्रेन हो या रेलवे लाइन सब बेहद बुनियादी स्तर के थे. ऐसे में ये लुकाछिपी कई महीनों तक जारी रही. साइबेरियाई इलाक़े में सोने से लदी ट्रेन को ज़ार के नए कमांडर अलेक्ज़ेंडर कोलचाक ने अपने क़ब्ज़े मे ले लिया.

ख़ज़ाने वाली ट्रेन

उसने ट्रेन के और आगे रवाना कर दिया. अब इस ट्रेन की मंज़िल साइबेरिया का इर्कुटस्क शहर थी. ये एक कारोबारी ठिकाना था जो बैकाल झील के पास स्थित था. आज भी इर्कुटस्क ने कुछ ज़्यादा तरक़्क़ी नहीं की है. रात में यहां घुप्प अंधेरा होता है. बिजली पानी जैसी बुनियादी सुविधाओ तक की यहां कमी है.

हां, तो हम ख़ज़ाने वाली ट्रेन की बात कर रहे थे. ख़ज़ाने वाली ट्रेन जब इर्कुटस्क शहर पहुंची तो उसे वहां मौजूद चेक सैनिकों ने अपने क़ब्ज़े में ले लिया. ये चेक फौजी, पहले विश्व युद्ध में रूस की तरफ़ से लड़ने के लिए आए थे. जंग के दौरान ही रूस में क्रांति हो गई. जिस वजह से ये सैनिक वहीं फंस गए थे. इन सैनिकों को घर जाने की जल्दी थी.

कम्युनिस्ट क्रांतिकारी

सो, उन्होंने सोने से लदी ट्रेन को कोलचाक के क़ब्ज़े से छीन लिया. कहा जाता है कि उन्होंने ये ट्रेन बोल्शेविक लड़ाकों यानी कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों को सौंप दी. उन्होंने कोलचाक को भी ट्रॉटस्की के सैनिकों के हवाले कर दिया. इसके बदले में चेक सैनिकों ने ट्रॉटस्की से अपने वतन वापस जाने की इजाज़त मांगी, जो उन्हें मिल गई.

वो रूस के पूर्वी बंदरगाह व्लादिवोस्टोक से समंदर के रास्ते अपने देश रवाना हो गए. कुछ क़िताबें कहती हैं कि ट्रॉटस्की ज़ार के पूरे ख़ज़ाने को मॉस्को ले आया. उसने ज़ार के कमांडर कोलचाक को गोली मार दी थी. लेकिन, कुछ लोग मानते हैं कि इस दौरान क़रीब दो सौ टन सोना पार कर दिया गया. यानी उसका आज तक पता नहीं चला.

 

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